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पू. हरिभद्रसूरिजी की भाषा अत्यन्त ही संक्षिप्त है । संक्षेप रुचि वाले जीवों को वह अत्यन्त पसन्द आयेगी । उनके संक्षिप्त वाक्य अत्यन्त ही गम्भीर होते हैं। किसी भी सूत्र के ऐदंपर्य अर्थ तक उनकी प्रज्ञा पहुंचती थी ।
* काल हीयमान है । बुद्धि, बल आदि कम होते प्रतीत होते हैं । पच्चीस वर्ष पूर्व घी, अनाज आदि में जो मिठास, स्वाद था वह आज है ? क्या वह बल आज है ? ऐसे पतनोन्मुख काल को ख्याल में रखकर ही महापुरुषों ने सरल कृतियों की रचना की है।
हरिभद्रसूरिजी की भी टीका कठिन लगने लगी तब मुनिचंद्रसूरिजी जैसों ने उस पर पंझिका बनाई है ।
इन ग्रन्थकारों पर भी बहुमान रखना । बहुमान होगा तो ही उनकी कृतियों का रहस्य समझ में आयेगा ।
* 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ सर्व प्रथम बेड़ा में जब पू.पं.श्री भद्रंकरविजयजी म. के पास थे तब व्याख्यान में पढ़ा था । अत्यन्त ही आनन्द आया। उसके बाद चार-पांच बार पढ़ा । फिर तो चैत्यवन्दन पूरा न हो, ऐसा आनन्द आता है क्योंकि उसके अर्थ याद आते
स्थान (मुद्रा) योग अधिक कठिन नहीं है। कुछ प्रयत्न करोगे तो उसका अभ्यास हो जायेगा, परन्तु मन का उपयोग सूत्र में रहता है । सूत्र से वाच्य भगवान में रहता है । यह महत्त्व की बात
मन को भगवान में जोड़ना ही बड़ी बात है । ___आप अपने आप गुणों की प्राप्ति नहीं कर सकते । आपको प्रभु के साथ अनुसन्धान करना ही पड़ता है, प्रभु अनन्त गुणों के सागर हैं । उनके साथ अनुसन्धान होते ही उनके गुण हमारे भीतर आने लगते हैं । अपने शरीर में बिजली प्रविष्ट होते ही कैसा झटका लगता है ? यदि उसकी मारक-शक्ति कार्य कर सकती हो तो भगवान की तारक-शक्ति क्यों न कार्य करे ? परन्तु हमने भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ा नहीं है, इसीलिए तो भगवान की महिमा समझे नहीं हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000000 somwww6 ३)