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श्वेताम्बर श्रमण संघ का प्रारम्भिक स्वरूप हुआ होगा । आचार्य हरिषेण द्वारा रचित बृहत्कथाकोश (रचनाकाल वि.सं. ९८७/ई०स० ९३१) के अनुसार आचार्य भद्रबाहु का जन्म पुण्ड्रवर्धन देश के 'देवकोट्ट' नामक नगर में हुआ था । २ भद्रबाहु के वंगभूमि में जन्म लेने के कारण उनके शिष्य गोडास द्वारा स्थापित चार शाखाओं का वहां के विभिन्न स्थानों से सम्बन्ध होना स्वाभाविक ही है । मोरियपुत्र, जिसने महावीर के जीवनकाल में ही जैनधर्म स्वीकार कर लिया था, ताम्रलिप्ति का निवासी था । भगवतीसूत्र में इसके सम्बन्ध में विस्तृत कथानक प्राप्त होता है।
उत्तरबल्लिसहगण की चार शाखाओं में से एक शाखा-कौशाम्बिका का सम्बन्ध वत्स जनपद की राजधानी कौशाम्बी से था । कौशाम्बी की स्थापना हस्तिनापुर के बाढ से नष्ट हो जाने के पश्चात् की गयी थी। महावीर और बुद्ध ने यहां विहार किया था । महावीर के समय उदयन वहां का शासक था । जब महावीर वहां पधारे थे तो उसने उनकी वन्दना की थी । भगवतीसूत्र के अनुसार इसी नगरी में उदयन की चाची जयन्ती ने श्रमणी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। महावीर ने उपवास के पश्चात् प्रथम बार यहां आहार ग्रहण किया था। ऐसे प्रसिद्ध स्थान पर ई० पू० ३०० के आसपास जैन धर्म की एक शाखा स्थापित होना अस्वाभाविक नहीं लगता।
उत्तरबल्लिसहगण की दूसरी शाखा सौमित्रिका की पहचान सुक्तमती से की गयी है, जो मध्यभारत के दक्षिणी विभाग में विंध्याचल की घाटियों की तराई में थी। यहां भी ई० पू० की तीसरी शताब्दी के आस-पास जैन श्रमणों का प्रवेश हो चुका था । इस गण की दो अन्य शाखाओं - कौटुम्बिनी और चन्द्रनागरी के सम्बन्ध में मुनि कल्याणविजयजी का मत है कि वे पूर्वी भारत से सम्बद्ध हैं। चन्द्रनगर को मात्र नामसाम्य के आधार पर वे पूर्वफ्रांसीसी बस्ती चन्द्रनगर से समीकृत मानते हैं ।
आर्यरोहण से प्रारम्भ हुए उद्देहगण की औदुम्बरीया शाखा को मुनि कल्याणविजयजी ने प्राचीन श्रावस्ती के निकट स्थित माना है। जबकि अन्य विद्वानों ने औदुम्बर की पहचान पंजाब के औदुम्बर गण से की है।
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