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जैन संस्कृत महाकाव्य
यह सच है कि जैन कवियों के लिये साहित्य कलाबाजी' नहीं बल्कि धार्मिक आचार की पवित्रता और साधना का अंग है; परन्तु भाषा पाणित्य की द्योतक है, जैन महाकाव्यकार इस तथ्य से भली प्रकार परिचित हैं । जैन महाकाव्यों में भाषा के कई स्तर दिखाई देते हैं । ये स्तर शैली-विशेष के अनुरूप नहीं हैं। प्राचीन कवियों की परम्परा में रचित अधिकतर शास्त्रीय महाकाव्यों तथा कुछ ऐतिहासिक महाकाव्यों की भाषा प्रौढ़ तथा परिष्कृत है। इनमें भाषा को नाना उपकरणों से अलंकृत करने की प्रवृत्ति पायी जाती है । जैनकुमारसम्भव. हम्मीरमहासाव्य, यदुसुन्दर तथा हीरसौभाग्य में व्याकरणनिष्ठ प्रयोगों की कमी नहीं है। हीरसौभाग्य तो नैषधचरित के विद्वत्तापूर्ण प्रयोगों से इस तरह भरपूर है कि उनकी सम्बी सूची तैयार की जा सकती है । मेघविजय के महाकाव्यों में, चाहे वे शास्त्रकाव्य हों असा शास्त्रीय शैली का दिग्विजयमहाकाव्य, भाषा की प्रौढ़ता कृत्रिमता तथा दुल्हता में परिणत हो गयी है। इनमें से अधिकतर काव्यों में श्लेष तथा यमक का अधिक प्रयोग किया गया है, जिससे इनकी भाषा कहीं-कहीं बोझिल बन गयी है। नेमिनाथमहाकाव्य, सुमतिसम्भव, यदुसुन्दर तथा दिग्विजयमहाकाव्य में नाना प्रकार के चित्रकाव्य ने इनकी भाषा को दुस्साध्य बना दिया है। श्रीधरचरित में अपभ्रंशभाषाचित्र, प्रहेलिका तथा समस्यापूर्ति के हथकण्डे भी अपनाये गये हैं, यद्यपि यह मुख्यतः पौराणिक शैली का काव्य है। धर्मशर्माभ्युदय, नरनारायणानन्द आदि पूर्ववर्ती काव्यों की भांति आलोच्य युग के किसी महाकाव्य में, पूरे एक सर्ग में, चित्रकाव्य की योजना नहीं की गयी, यह संतोष की बात है। देवानन्दमहाकाव्य की रचना माघकाव्य की समस्यापूर्ति के आधार पर हुई है, जिससे यह सप्तसन्धान की तरह दुर्भेद्य बन गया है । दूसरी ओर भ. बा. महाकाव्य है, जो शास्त्रीय शैली की रचना होने पर भी भाषा की प्रांजलता तथा प्रासादिकता का कीर्तिमान स्थापित करता है।
पौराणिक महाकाव्यों की रचना विद्वद्वर्ग के लिये नहीं अपितु सामान्य जनों को जैन धर्म के सिद्धान्तों की शिक्षा देने के लिये हुई है । अतः इनकी भाषा सुबोध तथा सरल है । उद्देश्य प्राप्ति के आवेश में इन काव्यों के प्रणेताओं ने भाषा की शुद्धता को अधिक महत्त्व नहीं दिया है । धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों और अन्य आदों के समर्थन के लिये पौराणिक काव्यों में प्राकृत गाथाएं तथा पररचित पद्य उदाहरण के रूप में उद्धृत किये गये हैं । शैली तथा विषयवस्तु में ये काव्य पुराणों के अधिक निकट हैं। २८. राजस्थान का न साहित्य, भूमिका, पृ० २० २९. आकृत्यवावजुलंच पाण्डित्यमिव भाषया ।—पार्श्वनाथचरित, ३.१६१ ।।