________________
रहा। पांचवीं से १४वीं शती तक का समय दर्शन के अंधकार का युग था। उस समय दर्शन को ईसाई धर्म का दासत्त्व भोगना पड़ा।
भारत में इस प्रकार की हठधर्मिता कभी नहीं रही। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास के अंधकारपूर्ण गलियारे से वह सदा मुक्त रहा। अन्यथा वास्तविक दर्शन की कोई सत्ता नहीं रह पाती। देखने के कोण अलग हो सकते हैं। परम्परागत विश्वास की सुरक्षा के साथ नवीन तथ्य को अपनाने में दुराग्रह नहीं रखा। यह उदारता ही भारतीय संस्कृति और दर्शन का सुरक्षा कवच है। 'भारतीय दर्शन मानवीय व्यवहार की ऐसी क्रियात्मक परिकल्पना है जो आध्यात्मिक विकास की विभिन्न स्थितियों में अपने आप को अनुकूल बना लेती है।
आज एक और अवधारणा सामने आती है, 'भारतीयों ने दार्शनिक विचार पश्चिम से आयात किये है।' तटस्थ अनुसंधान से यह धारणा भी खण्डखण्ड हो जाती है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी विशिष्ट मनोवृत्ति है। बौद्धिक विकास भी स्वतंत्र है। शताब्दियों के प्रवाह और समस्त परिवर्तनों के बीच अपना अस्तित्व कायम रखते हुए भारत गुजरा है। उधार चिंतन से क्या यह संभव हो सकता है? बिना नींव का भवन कब तक खड़ा रह सकेगा ? अतः उपरोक्त अवधारणा स्वतः निरस्त हो जाती है। दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ-यात्रा
दृशि धातु के साथ ल्युट् प्रत्यय का संयोग दर्शन शब्द की उत्पत्ति है, जिसका अर्थ है- देखना।
पूज्यपाद अकलंक आदि आचार्यों ने दर्शन पद की व्युत्पत्तिपूर्वक अर्थाभिव्यक्ति करते हुए लिखा है-दृश्यते अनेन इति दर्शनम्। जो देखता है अथवा जिसके द्वारा देखा जाता है वह दर्शन है। वस्तु के स्वरूप का जहां चिंतन हो, वह दर्शन है। दर्शन शब्द अनेक अर्थों का संवाहक है किन्तु यहां इन्द्रियजन्य निरीक्षण या अन्तर्दृष्टि द्वारा अनुभूत सत्य अर्थ ही अभिप्रेत है। अन्तर्दृष्टि ईहा, अपोह, तार्किक परीक्षण या घटनाओं के साथ जुड़े तादात्म्य से प्राप्त होती है।
मनुष्य अन्तर्बाह्य के द्वन्द्व के केन्द्र में अपने-आप को पहचानने में असमर्थ है। परिवेश के खोखलेपन की विवशता है। अन्तरंग जीवन-निकषों में घोर अन्तर उत्पन्न कर दिया है। आत्मानंद की खोज है। अन्तर्दृष्टि के बिना वह उपलब्ध नहीं होता। इसलिये लोक व्यवहार में निरत मनुष्य वस्तुज्ञानात्मक
.
६
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन