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आदि काल से मनुष्य की नैसर्गिक वृत्ति कुछ करने की रही है। अकृत को करने का संकल्प, अज्ञात को पाने की अभीप्सा जिज्ञासा की शांति है। आत्म तत्त्व की जिज्ञासा अध्यात्मवादी दर्शन की आधार भूमि है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग का प्रारंभ जिज्ञासा से होता है। 'मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? मेरा स्वरूप क्या है ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नही ?२ आदि जिज्ञासाएं दर्शन का मूल हैं।
इसी की प्रतिध्वनि सुनाई देती है वैदिक परम्परा, मुण्डकोपनिषद् एवं कठोपनिषद् में। आत्मा को जानने की जिज्ञासा क्यों पैदा होती है ? समाधान की भूमिका पर मुख्य रूप से दो तथ्य सामने आते हैं१. जब मानवीय चेतना का, विराट् प्रकृति के शाश्वत सौन्दर्य से तादात्म्य
जुड़ता है, आदिम संस्कारों का सर्वथा विलय हो जाता है, तब कोऽहं की निष्प्रकंप शिखा भीतर में जल उठती है। कारण आत्मज्ञान के अभाव में साध्य की प्राप्ति संभव नहीं है। दूसरा तथ्य है, आत्मवाद की मूल भित्ति पर ही पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष के सिद्धांत टिके हैं। आत्मा के बिना साधना का आधार क्या होगा? आत्म तत्त्व वह केन्द्र है जिसके परिपार्श्व में अध्यात्म गति करता है। अध्यात्म का प्रत्यय, आत्म तत्त्व का अनुगामी है। धर्म-दर्शन सभी
आत्म-सापेक्ष हैं। जीवन और मूल्यों के प्रति गंभीर एवं तर्कयुक्त यह चिंतन दर्शन बन जाता है।
ग्रीस के महान दार्शनिक प्लेटो के अभिमत से दर्शन का प्रारंभ आश्चर्य से है- “Philosophy begins in wonder"।
बेकन और देकार्त के दर्शन की प्रसव भूमि ‘संदेह' है। आश्चर्य और संदेह भी दर्शन के विकास में अपेक्षाकृत निमित्त बनते हैं। जैनागमों में गौतम स्वामी ने अनेक प्रश्न खड़े किये हैं। उनके कई कारणों में दो प्रमुख कारण थेसंशय और कुतूहल 'जाए संसए, जाए कोउहल्ले।'६ गौतम को जब संशय एवं कुतूहल हुआ, महावीर ने समाधान दिया। वे प्रश्नोत्तर जैन तत्त्व ज्ञान की अनमोल विरासत हैं।
पाश्चात्य दर्शनों का मंथन इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि वे आचरण की अपेक्षा ज्ञान पर अधिक बल देते हैं। पश्चिम में दर्शन का प्रारंभ छठी शताब्दी में यूनान से माना जाता है। करीब एक सहस्राब्दी तक वह गतिमान आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन -