Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन वृत्त : १ करती रहोगी तब तक तुमसे यह भूल संभव है. तुम क्यों नहीं सोचती हो:
___ मैं ही नहीं और भी तो हैं, बेटे तेरे धूल लपेटे ।
फिर क्यों घूम-घूम कर तेरी, ममता मुझसे ही प्रा भेटे ! 'माँ, जब तक तुम मुझको मेरी देह में देखती रहोगी, तब तक बटमारों की तरह, तुम्हारी प्रात्मा का धन लुटता रहेगा ममता के हाथों-इसलिए परभाव से विरत रहने में ही मेरा सुख, तुम्हारा हित और गुरुभक्ति की रक्षा-सुरक्षा है. 'इस पत्र से मुझे एक अलौकिक स्फूति मिली है, विशेषतः तुम्हारे इस वाक्य से 'साधना करने पर तुझे जो प्रानन्दानुभव होगा उससे गुरुको द्विगुणित आनन्द प्राप्त होगा.' 'माँ, तुम्हारे कहे पर मैं अमर विश्वास लाता हूँ ! अब मैं साधना करूगा ! गुरु-सेवा करूंगा. तुम्हारे कहे पर चित्त धरूंगा.
गुरुसेवक -हजारी"
"सबको ममता के आधार प्रिय हजारी,
'बहुत दिनों बाद पत्र मिला. पत्र पढ़कर मन रंजा. हजारी के हाथ का पत्र है जान, पत्र पढ़ा. पढ़ते-पढ़ते बेटा मेरा विश्वास आगे बढ़ा ! और हृदय में उच्चस्तरीय भावना ने जन्म लिया. किस प्रकार की भावना ने, यह बता रही हूँ. पहले तू अपने पत्रका जवाब पढ़ ले ! 'तुझे अब क्या बताऊँ कि कौन-सी शक्ति के वशवर्ती हो जाती हूँ. और तेरी छविदर्शन को विकल हो उठती हूँ ? तू तो अब सब का बनने जा रहा है. पर मेरी ममता बेटे से अब तक मिटी नहीं थी. मिटती भी कैसे ? पट्टी (स्लेट) के प्रांक थोड़े ही थे जो बचपन में पढ़ते हुए तू कक्का (क) मांडता और हाथ फेर कर मिटा देता था ऐसे सहसा ही मिट जाती ? 'पाज के तेरे पत्रसे मेरा माँपन दिशा बदल चुका है. तेरी कवि-कड़ी मैंने हिरदे की पाटी पर लिख ली है. आखिर पुत्र बुढ़ापे की लाठी होता है. यह पुरानी कहावत तूने सच्चे अर्थों में
आज चरितार्थ कर दी है. वह कवि कड़ी जिसने मेरा मन मोड़ा, विचार मोड़ा, और वाणी भी मोड़ी लिख रही हूँ. मुझे ठीक से याद हुई है या नहीं, जाँच करना.
मैं ही नहीं और भी तो हैं, बेटे तेरे धूल लपेटे,
___ फिर क्यों घूम-घूमकर तेरी, ममता मुझ से ही प्रा भेटे ! 'तूने ठीक ही तो अपना पुत्र धर्म निभाया है और मेरे असहाय मन का संबल बना है ! तू विश्वास कर मैं अपने आत्म-धन को बटमारों के हाथों लुटने से बचाऊंगी ! अब मैं धूल लिपटे हर बेटे में तेरा ही प्रतिबिम्ब देखूगी. तू भी विश्वमाता के पथ पर बढ़ रहा है न ? 'अपने निश्चय को बेटा, उस समय तक स्थिर रखना जबतक तेरे मनमें एक भी साँस, रक्तमें एक भी रक्ताणु शेष रहे. मैं भी विश्वपुत्र के दर्शन संसार के सभी पुत्रों में करूगी !'
Jain Edom
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