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आमुख
भौतिक विकास को ध्यान में रखने वाले लोग इस बीसवी शताब्दी को मानव के बौद्धिक विकास का महान् युग मानते हैं। वे सोचते हैं कि आज स्पर्शन, रसना, प्राण, नेत्र तथा कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों को परितृप्ति प्रदान करने के साधनों की अद्भुत वृद्धि हुई है। आध्यात्मिक दृष्टि वाला व्यक्ति सोचता है कि वर्तमान युग ने मनुष्य की वासनाओं को जगाकर उसे भयंकर बन्दी बना लिया है। कोई व्यक्ति कैदी बनाया जाता है, उसमें उसकी मजबूरी कारण पड़ती है। कोई जबरदस्त शक्ति सिर पर सवार रहती है, इससे मनुष्य कारावास का कष्ट भोगता है। यदि उसका वश चले, तो उसे उस बन्धन को दूर करते तनिक भी देर न लगेगी। यह वासना की दासता अद्भुत है। इसमें मनुष्य स्वयं अपने को बन्धनबद्ध बनाकर दुःखी होता है।
एक कवि एक भ्रमर के रूप में विषयासक्त जीव का चित्रण करता है ।' सौरभ पान कालोलुपी एक भ्रमर सरोज की सुगन्ध में मस्त होता हुआ सूर्यास्त के समय कमल से बाहर नहीं आता है। सूर्य के अस्तंगत होने पर भ्रमर कमल के भीतर बैठा हुआ आनन्द का अनुभव करता है और मन में सोचता है- 'अरे ! रात्रि शीघ्र ही व्यतीत होगी । पुनः सुप्रभात आयगा। प्रिय प्रभाकर का पुनः दर्शन होगा, उस समय इस कमल का मुख खिल जायेगा।' इतने में कोई गजराज उस सरोवर में घुसकर उस कमल को तोड़कर उदरस्थ करता है और स्वर्णिल स्वप्नों के सौन्दर्य में निमग्न भ्रमर की जीवन लीला समाप्त हो जाती है। उस भ्रमर के समान ही मनुष्य का जीवन- प्रदीप अकस्मात् बुझ जाता है और उसका मनुष्य जन्म समाप्त हो जाता है। मोह के बन्धन से क्रियाविहीन बने भ्रमर के विषय में कवि के ये शब्द अत्यन्त मार्मिक हैं।
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बन्धनानि किल संति बहूनि स्नेह - रज्जुकृत - बंधनमन्यत् । दारुभेद निपुणोपि षडंधि:, निष्क्रियो भवति पंकजबद्धः ।।
अर्थ : बन्धन तो अनेक प्रकार के होते है, किन्तु प्रेम की रज्जु द्वारा निर्मित बन्धन सबसे निराला है । कमल के प्रेमबन्धन में बद्ध भ्रमर, यद्यपि काष्ठ में छेद करने की क्षमता से सम्पन्न रहता है, पंकज के मध्य में निष्क्रिय बन जाता है।
१. रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसस्यति पंकजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे, हा हन्त हन्त नलिनीं गजमुज्जहार ॥
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