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उसमें अधिक रस लेने से होता है। जैसे पहले किसी ने डरते-डरते किसी की छोटी-सी वस्तु चुराकर लोभ की पूर्ति की। फिर वह डाकुओं के गिरोह में मिल गया, तो उसकी लोभ की प्रवृत्ति का पोषण हो गया, वह बहुत बढ़ गई तथा अधिक काल तक टिकाऊ भी हो गई, वह निधड़क डाका डालने व हत्याएँ करने लगा। इस प्रकार उसकी पूर्व की लोभ की वृत्ति का पोषण होना, उसकी स्थिति व रस का बढ़ना, उद्वर्तना कहा जाता है। जिस प्रकार खेत में उगे हुए पौधे को अनुकूल खाद व जल मिलने से वह पुष्ट होता है, उसकी आयु व फलदान शक्ति बढ़ जाती है। इसी प्रकार और भी अधिक तीव्र राग-द्वेष रूप कषाय का निमित्त मिलने से पूर्व में बंधे हुए कर्मों की स्थिति और फल देने की शक्ति बढ़ जाती है। अथवा जिस प्रकार किसी ने पहले साधारण-सी शराब पी, इसके पश्चात् उसने उससे अधिक तेज नशे वाली शराब पी, तो उसके नशे की शक्ति पहले से अधिक बढ़ जाती है या किसी मधुमेह के रोगी ने शक्कर या कुछ मीठा पदार्थ खा लिया, फिर वह अधिक शक्कर वाली मिठाई खा लेता है तो उस रोग की पहले से अधिक वृद्धि होने की स्थिति हो जाती है। इसी प्रकार विषय-सुख में राग की वृद्धि होने से तथा दुःख में द्वेष बढ़ने से तत्संबंधी कर्म की स्थिति व रस अधिक बढ़ जाता है। अतः हित इसी में है कि कषाय की वृद्धि कर पाप कर्मों की स्थिति व रस को न बढ़ाया जाय ।
नियम- 1. सत्ता में स्थित स्थिति व रस से वर्तमान में बध्यमान कर्म की स्थिति व रस का अधिक बन्ध होता है, तब ही उद्वर्तन करण संभव
है।
2. संक्लेश (कषाय या अशुभ भावों की वृद्धि) से आयु कर्म की शुभ प्रकृतियों को छोड़कर शेष कर्मों की सब प्रकृतियों की स्थिति में एवं सब पाप प्रकृतियों के अनुभाग (रस) में उद्वर्तन होता है। विशुद्धि (शुभ भावों) से पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग (रस) में उद्वर्तन होता है।
(5) अपवर्तना करण- पूर्व में बंधे हुए कर्मों की स्थिति और रस में कमी आ जाना अपवर्तना करण है। पहले किसी अशुभ कर्म का बंध करने के पश्चात् जीव यदि फिर अच्छे कर्म (काम) करता है तो उसके पहले बांधे हुए अशुभ कर्मों की स्थिति व फलदान शक्ति घट जाती है। जिस
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प्राक्कथन