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उसके साथ संबंध स्थापित हो जाता है। यह संबंध ही बंध है, बन्धन है। इस प्रकार राग-द्वेष करने का प्रभाव चेतना के गुणों पर एवं उन गुणों की अभिव्यक्ति के माध्यम शरीर, इन्द्रिय, मन, वाणी आदि पर भी पड़ता हैं। अतः राग-द्वेष रूप जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसे ही कर्म बंधते हैं तथा जितनी-जितनी राग-द्वेष की अधिकता-न्यूनता होती है, उतनी- उतनी बंधन के टिकने की सबलता-निर्बलता तथा उसके फल की अधिकता-न्यूनता होती है। इसलिए जो व्यक्ति जितना राग-द्वेष कम करता है, समदृष्टि रहता है, वह पाप कर्म का बंध नहीं करता है। अतः बंध से बचना है, तो राग-द्वेष से बचना चाहिये।
नियम- 1. कर्म बंध का कारण राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति है। 2. जो जैसा अच्छा-बुरा कर्म करता है, वह वैसा ही सुख-दुःख रूप फल भोगता है। 3. बन्धे हुए कर्म का फल अवश्यमेव स्वयं को ही भोगना पड़ता है। कोई भी अन्य व्यक्ति व शक्ति उससे छुटकारा दिलाने में समर्थ नहीं है।
उदये संकममुदये चउमुवि दाएं कमेण णो अक्कं। उवसंतं च णिधत्तिं विकाचिदं लेदि कम्म।।
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 440 अर्थ- जो कर्म उदय अवस्था को प्राप्त नहीं हो उसे उपशान्त करण कहते हैं। जो कर्म उदय व संक्रमण अवस्था को प्राप्त नहीं हो उसे निट त्त करण कहते हैं तथा जिस कर्म में उदय, संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तन ये चारों नहीं हो, कर्म की इस अवस्था को निकाचित करण कहते है। यह नियम है कि जिस कर्म प्रकृति का उदय नहीं होता है उसकी उदीरणा भी नहीं होती है, क्योंकि उदीरणा उदय को प्राप्त होती है। (2) निधत्त करण
कर्म की वह अवस्था जिसमें स्थिति तथा रस में संक्रमण और उदय नहीं हो, परन्तु स्थिति और रस में घट-बढ़ (अपवर्तन-उद्वर्तन) हो सके उसे निधत्तिकरण कहते हैं। उदाहरणार्थ मलेरिया, तपेदिक, हैजा आदि के विषाणु शरीर में प्रविष्ट हो जायें और वहाँ उनमें बाहरी प्रभाव से हानि-वृद्धि होती रहे, परन्तु वे बाह्य में रोग के रूप में प्रकट नहीं हों तथा दवा के प्रभाव से भी उनका रूपान्तरण नहीं हो, इसी प्रकार सत्ता में स्थित
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प्राक्कथन