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शरीर, शरीरों की अस्थियों की रचना रूप छह संहनन, शरीरों की आकृति रूप छह संस्थान, शरीरों के तीन अंगोपांग, शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं शरीर से संबंधित अगुरु-लघु, निर्माण, आतप, उद्योत, उपघात, पराघात, साधारण, प्रत्येक, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर ये 36 प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी हैं।
(3) भव विपाकी : आयु कर्म की नरकादि चारों प्रकृतियों का विपाक भव आश्रित है। अतः ये चार प्रकृतियाँ भव विपाकी हैं।
(4) क्षेत्र विपाकी : नरकादि चारों आनुपूर्वी की ये चार प्रकृतियाँ नरकादि गति की ओर ही गति कराती हैं, गति में आबद्ध रखती हैं, अतः ये नरकादि प्रकृतियाँ स्थिति या स्थान, क्षेत्र से संबंधित होने से क्षेत्र विपाकी कही गई हैं।
प्रकृतियों के विपाक का उपर्युक्त विभाजन बड़ा ही मौलिक, व्यावहारिक एवं युक्तियुक्त है। इन प्रकृतियों में प्राकृतिक घटनाओं व परिस्थितियों से उत्पन्न गर्मी, सर्दी आदि ऋतुओं का होना, अकाल-सुकाल का होना, महामारी का होना एवं आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक स्थितियों व व्यवस्थाओं को, कहीं भी, कुछ भी कर्मोदय के परिणाम के रूप में नहीं बताया गया है। करण-सिद्धान्त : एक विवेचन
जैन-दर्शन की दृष्टि में कर्म भाग्य विधाता है। जैन कर्म-ग्रन्थों में कर्म- बंध और कर्म-सिद्धान्त विषयक गोम्मटसर कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह, कम्मपयडि आदि ग्रन्थों में 'करण' शब्द का प्रयोग कर्म की विद्यमान अवस्था के लिए हुआ है। कर्म फल भोग की प्रक्रिया का अति विशद वर्णन है। उनमें जहाँ एक ओर यह विधान है कि बंधा हुआ कर्म फल दिये बिना कदापि नहीं छूटता है, वहीं दूसरी ओर उन नियमों का भी विधान है, जिनसे बंधे हुए कर्म में अनेक प्रकार से परिवर्तन भी किया जा सकता है। कर्म बंध से लेकर फल-भोग तक की इन्हीं अवस्थाओं व उनके परिवर्तन की प्रक्रिया को शास्त्र में करण कहा गया है। कर्म-बंध व उदय से मिलने वाले फल को ही भाग्य कहा जाता है। अतः 'करण' को भाग्य परिवर्तन की प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। ‘महापुराण' में कहा है
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प्राक्कथन