________________
(6) नाम : वह प्रवृत्ति जो शरीर व शरीर से संबंधित गति, जाति आदि के निर्माण में कारण बनती है, वह नामकर्म है। ये गति, जाति, शरीर आदि के भेदों से 93 प्रकृतियाँ हैं।
(7) गोत्र : शरीर, रूप, बल, बुद्धि, वस्तु आदि की प्राप्ति के आधार पर अपना मूल्यांकन करना अर्थात् गौरव व हीनता का अनुभव करना गोत्र कर्म है, यह उच्च गोत्र व नीच गोत्र के भेद से दो प्रकार का है।
(8) अंतराय : जिस प्रवृत्ति से दान (करुणा, उदारता, कृपा), लाभ (अभाव का अभाव, ऐश्वर्य, पूर्णता), भोग (निराकुल सुख का अनुभव), उपभोग (निराकुलता के सुख की प्रति क्षण अक्षय नूतन अनुभूति होना), वीर्य (सामर्थ्य या पराक्रम)रूप उपलब्धियों की अभिव्यक्ति में विघ्न उत्पन्न हो, वह अंतराय कर्म है। कर्म विपाक के प्रकार
कर्म-प्रकृतियों को विपाक (फलदान) की दृष्टि से चार भागों में बांटा गया है। 1. जीव विपाकी, 2. भव विपाकी 3. क्षेत्र विपाकी और 4. पुद्गल विपाकी।
(1) जीवविपाकी : जिन प्रकृतियों के उदय से जीव के स्वभाव पर, चेतना पर सीधा प्रभाव पड़ता है, वे प्रकृतियाँ जीव विपाकी हैं और ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घाती कर्म हैं। ये जीव के निज गुणों का सीधा घात करने वाले हैं। अतः इनकी क्रमशः पाँच, नौ, छब्बीस एवं पाँच ये पैंतालीस प्रकृतियाँ जीव विपाकी हैं। वेदनीय का प्रभाव जीव पर साता (सुख) और असाता (दुःख) वेदना रूप से तथा गोत्र कर्म का प्रभाव जीव पर ऊँच-नीच भाव के रूप में होता है। अतः इन दोनों कर्मों की चार प्रकतियाँ भी जीव विपाकी कही गई हैं तथा नाम कर्म की गति की चार, जाति की पाँच, शुभ और अशुभ विहायोगति तथा त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्ति ये सात एवं इन प्रकतियों से इतर स्थावर आदि सात तथा श्वासोच्छवास एवं तीर्थंकर नाम ये 76 प्रकृतियाँ जीव को प्रभावित करती हैं, अतः ये प्रकृतियाँ जीव विपाकी हैं।
(2) पुद्गल विपाकी : शरीर पुद्गल से निर्मित है, अतः शरीर और शरीर से संबंधित प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी कही गई हैं। यथा- पाँच
XXIII
प्राक्कथन