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विधिः स्रष्टा विधाता, दैवं कर्म पुराकृतम्।
ईश्वरश्चेति, पयार्याः कर्मवेधसः।।437 ।। विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म, ईश्वर ये कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द हैं। अर्थात् कर्म ही वास्तव में ब्रह्मा या विधाता है।
__करण आठ हैं- 1. बंधन करण 2. निधत्त करण 3. निकाचित करण 4. उद्वर्तना करण 5. अपवर्तना करण 6. संक्रमण करण 7. उदीरणा करण
और 8. उपशमना करण। कर्म-सिद्धान्त विषयक गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह, कम्मपयडि आदि ग्रन्थों में 'करण' शब्द का प्रयोग कर्म की विद्यमान अवस्था के लिए हुआ है। इन आठ करणों में कर्मों की आठ अवस्थाओं का वर्णन है। जिनका विवेचन वनस्पति विज्ञान एवं चिकित्सा-शास्त्र के नियमों व दृष्टान्तों द्वारा मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक जीवन के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
(1) बन्धन करण– कर्म परमाणुओं के आत्म-सम्बद्ध होने को बंध कहा जाता है। यहाँ कर्म का बंधना या संस्कार रूप बीज का पड़ना बंधन करण है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में ग्रन्थि- निर्माण भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर में भोजन के द्वारा ग्रहण किया गया अच्छा पदार्थ शरीर के लिए हितकर और बुरा पदार्थ अहितकर होता है इसी प्रकार आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए शुभ-कर्म-परमाणु आत्मा के लिए सुफल-सौभाग्यदायी एवं ग्रहण किए गए अशुभ कर्म-परमाणु आत्मा के लिए कुफल-दुर्भाग्यदायी होते हैं। अतः जो दुर्भाग्य को दूर रखना चाहते हैं, उन्हें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पाप प्रवृत्तियों- अशुभ कर्मों से बचना चाहिये, क्योंकि इनके फलस्वरूप दुःख मिलता ही है और जो सौभाग्य चाहते हैं, उन्हें सेवा, परोपकार, वात्सल्य भाव आदि पुण्य प्रवृत्तियों, शुभ कर्मों को अपनाना चाहिये। कारण कि जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल लगता है। किसी की हिंसा या बुरा करने वाले को फल में हिंसा ही मिलने वाली है, बुरा ही होने वाला है। भला या सेवा करने वाले का उसके फलस्वरूप भला ही होता है।
किसी विषय, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि के प्रति अनुकूलता में राग रूप प्रवृत्ति करने से और प्रतिकूलता में द्वेष रूप प्रवृत्ति करने से
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प्राक्कथन