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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका ( ५-७७) तककी बहत्तर कारिकाओं और उनकी टीकामें वैशेषिकदर्शन सम्मत पदार्थों, मान्यताओं व उनके उपदेशक महेश्वरकी विस्तारसे परीक्षा की गई है। अठहत्तरसे तेरासी (७८-८३ ) तक की छह कारिकाओं और उनकी टोकामें सांख्यदर्शन-अभिमत तत्त्वों व उनके उपदेशक कपिल अथवा प्रधानको समीक्षा की गई है। चौरासीसे छयासी (८४-८६ ) तक तीन कारिकाओं और उनकी टीकामें बौद्धदर्शन सम्मत तत्त्वों व उनके उपदेशक बद्धकी परीक्षा करते हुए वेदान्तदर्शनके मोक्षमार्गप्रणेता परमपुरुषकी आलोचना की गई है । सतासीसे एक-सौ नव ( ८७-१०९ ) तक तेईस कारिकाओं और उनकी टीका में सर्वज्ञाभाववादी मीमांसकोंके सर्वज्ञाभावप्रदर्शक मतका समालोचन करते हुए सामान्यतः सर्वज्ञ सिद्ध करके अरहन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। और इस तरह "विश्वतत्त्वज्ञातृत्व' विशेषणकी विस्तृत व्याख्या को गई है। एक-सौ दससे एक-सौ पन्द्रह (११०-११५) तक छह कारिकाओं और उनकी टीकामें 'कर्मभूभद्भतृत्व' विशेषणकी सिद्धि की गई है। एक-सौ सोलहसे एक-सौ उन्नीस (११६-११९ ) तक चार कारिकाओं और उनको टीकामें 'मोक्षमार्गनेतत्व' का प्रसाधन एवं व्याख्यान किया गया है। एक-सौ बीस (१२० ) वीं कारिका तथा उसकी टीकामें कारिका तीसरीके वक्तव्यको दोहराते हए अरहन्तको ही आप्त-वन्दनीय प्रसिद्ध किया है। एस-सौ इक्कीस ( १२१) वीं कारिका व उसकी टीकामें अरहन्तके वन्दनीय होने में हेतु बतलाया गया है। एक-सौ बाईस से एक-सौ चौवीस (१२२-१२४) तक तीन कारिकाओंमें आप्तपरीक्षाके सम्बन्धका उपसंहारात्मक अन्तिम वक्तव्य - उपस्थित किया गया है । इस तरह ग्रन्थका यह सामान्यतः परिचय है । ( ख ) ग्रन्थका महत्त्व और श्रेष्ठता __ यह जैनदर्शनका एक अपूर्व और श्रेष्ठ ग्रन्थ है। इसमें दर्शनान्तरीय पदार्थोकी व्यवस्थित मीमांसा और उनके उपदेशकों ( ईश्वर, कपिल, बुद्ध और ब्रह्म) की परीक्षाका जो विशद, विस्तृत युक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है वह प्रायः अन्यत्र अलभ्य है । ग्रन्थकारके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीगत उनके अगाध पाण्डित्यको देखकर यह आश्चर्य होने लगता है कि उनकी उस पाण्डित्यगर्भ लेखनीसे इतनी सरल और विशद रचना कैसे प्रसूत हुई ? वास्तवमें यह उनकी सुयोग्य विद्वत्ताका सुन्दर और मधुर फल है कि उसके द्वारा जटिल और सरल दोनों तरहकी अपूर्व रचनाएँ रची गई हैं। सूक्ष्मप्रज्ञ विद्यानन्दने जब देखा कि मीमांसादर्शनके प्रतिपादक
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