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• "तब देखता क्या हूँ कि वे बहुत ही संतृप्त होकर, अपने अंजन-नील पंखों को स्पन्दित करते हुए, आत्म-विभोर हो मेरे आसपास गुंजन-गान करते हैं। फुल-वनों के परिमल-पराग ला-लाकर मेरे दंश-घायल शरीर पर आलेपन कर देते हैं। अपनी देह-गन्ध के साथ प्रकृति की सुगन्ध के सहज मिलन में गहरी आत्मलीनता अनुभव करता हूँ। सारे व्रण शान्त हो कर, एक शीतल सुखोष्मा में देह तैरने लगती है। भूख-प्यास का पता ही नहीं चलता। मेरे रोम-कूपों से संस्पर्शित प्रकृति, अपने रस, रुधिर, सौरभ, पराग से मेरी जठराग्नि को अभिसिंचित करती रहती है। एक अक्षय्य तारुण्य की अनुभूति होती है । प्रकृति मां है : वह परम प्रिया है ।
मध्यान्ह के हल्के ऊने ताप में एकोन्मुख चला जा रहा हूँ। राह के मंजरित आम्रवनों की शीतल छाया मर्मर भाषा में आमंत्रण-सा देती है : '.. 'आओ यात्रिक, क्षण भर हमारी शीली छाँव में विश्राम करो!' . . ठिठक कर, उस छाया की ओर मुस्करा देता हूँ। उसके निहोरे को टाल कर भी, अपने ढंग से स्वीकार लेता हूँ। उसके आँचल को बचा कर, खुले आकाश तले, मध्यान्ह के प्रखर ताप में, प्रलम्बमान बाँहों के साथ ध्यानस्थ हो जाता हूँ। वह मँजरियों से सुगंधित आम्रछाया आकर लता-सी मुझसे लिपट जाती है। मेरे अंगों के प्रतप्त पलाशी स्पर्श में वह मानों बेसुध हो रहती है । · ध्यान न तो विमुखता है, न उन्मुखता है : वह सन्मुखता है : सबके साथ आमने-सामने होना। उसके बिना दर्शन कैसे सम्भव है। तन, मन, प्राण, इन्द्रियों का निरोध नहीं करता मैं । उन्हें अपने आप में समाहित, निष्कम्प कर देता हूँ। ताकि वे सर्व का मोहमुक्त यथार्थ सौन्दर्य-दर्शन कर सकें। अखिल के साथ सच्चे अन्तिम सम्बन्ध में सम्वादी हो सकें । तब समाधि आपो आप हो जाती है । सारे अन्तर्विग्रह मिट जाते हैं । एक सघन और गहन आत्मलीनता में चेतना विश्रब्ध हो जाती है। एक अकारण और निष्काम सुख से प्राण उमिल होता रहता है।
• • 'जाने कब अपरान्ह की धूप नरम हो आई है । दूर-पास की अमराइयों में कोयल की कूक सुनाई पड़ती है। तरुण युवक-युवतियों के यूथ जहां-तहां वनक्रीड़ा करते दिखाई पड़ते हैं । ___ कुछ मनचले छैला युवक हँसी-ठिठोली करते मेरे पास आ खड़े होते हैं। कहते हैं :
'ओ तरुण तापस, तुम यह कामदेव को लजानेवाला सौन्दर्य कहाँ पा गये ? अरे तुम्हारे धूलि-धूसरित कान्तिमान शरीर से यह कैसी मोहक सुगन्ध आती है? अपने अंगों में यह किस दिव्य अंगराग का लेपन करते हो तुम? हमें भी इसे बनाने की विधि बताओ न । अपनी और अपनी प्रिया की देह को इस अंगराग से रंजित करके, हम उसके साथ अपूर्व केलि-सुख पा जायेंगे...'
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