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अलङ्कार-धारणा का विकास
[६७ दण्डी के प्रस्तुत उपमाभेद में भी उपमान का अनियम होने से एक उपमेय के अनेक उपमान हुआ करते हैं।
समुच्चयोपमा:-यह दण्डी के द्वारा कल्पित उपमा का नवीन भेद है । इसमें उपमेय की उपमान के साथ अनेक धर्मों से समता दिखायी जाती है।' इसके तीन भेद हो सकते हैं—क्रिया-समुच्चय से प्रतिपादित साम्य के आधार पर क्रियागत समुच्चयोपमा, गुण-समुच्चय के आधार पर गुण-समुच्चयोपमा तथा गुण-क्रिया-समुच्चय से साम्य-प्रतिपादन में गुण-क्रिया-समुच्चयोपमा । भरत ने प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत की संख्या के आधार पर उपमा के चार भेद स्वीकार किये थे; किन्तु उन्होंने एक प्रस्तुत के एक ही अप्रस्तुत के साथ अनेक धर्मों के द्वारा सम्बन्ध-निरूपण पर पृथक् विचार नहीं किया था । सम्भव है कि दण्डी ने प्रस्तुत-अप्रस्तुत की संख्या के आधार पर निरूपित भरत के उपमा-भेदों से ही प्रेरणा पाकर उपमेय तथा उपमान के बीच अनेक गुणों, अनेक क्रियाओं एवं अनेक गुणक्रियाओं का साम्य प्रतिपादित करनेवाले समुच्चयोपमा नामक उपमा-भेद की कल्पना कर ली हो। __ अतिशयोपमाः-अतिशय चमत्कारी उपमा की कल्पना को अतिशयोपमा कहा गया है। मुख और चन्द्रमा में केवल आश्रय का भेद है; गुण, क्रिया आदि का कोई भेद नहीं। इस विवक्षा में यह कथन "तुम्हारा मुख तुम में ही दिखाई पड़ता है, चन्द्रमा आकाश में दीखता है, यही दोनों का भेद है, अन्य नहीं,"२ अतिशयोपमा का उदाहरण माना गया है। उपमा अलङ्कार के साथ भरत के अतिशय लक्षण के योग से प्रस्तुत उपमा-भेद की उत्पत्ति हुई है।
उत्प्रेक्षितोपमा:-उत्प्रेक्षा तथा उपमा के तत्त्वों को मिलाकर इस नवीन उपमा-भेद की कल्पना की गई है। उपमान में वस्तुतः नहीं रहनेवाले धर्म की सम्भावना कर अर्थात् उस धर्म का अतात्त्विक रूप से आरोप कर जहाँ उपमा दी जाती है वहाँ दण्डी उत्प्रेक्षितोपमा नामक उपमा-भेद मानते हैं। भामह ने इस उपमा-भेद की पृथक् काना नहीं की थी। उनकी उत्प्रेक्षा-धारणा तथा उपमा-धारणा में ही इस उपमा-भेद का बीज निहित था। दण्डी के परवर्ती आचार्यों ने इसे सम्बन्धातिशयोक्ति नामक अतिशयोक्ति-भेद माना है।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, २१ .. २. त्वय्येव त्वन्मुखं दृष्टं दृश्यते दिवि चन्द्रमा ।
___इयत्येव भिदा नान्येत्यसावतिशयोपमा ।—वही, २, २२ ३. तुलनीय-दण्डी, काव्याद० २, २३ तथा अप्पय दी०, कुवलया० ३९