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१६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण सकता है । अलङ्कार के किसी विलक्षण स्वरूप की उद्भावना उन भेदों के विवेचन-क्रम में नहीं हो पायी है । इन उभयालङ्कारों की संख्या को चौबीस तक ही सीमित रखने के लिए भोजराज ने किसी विशेष अलङ्कार में पूर्वाचार्यों के द्वारा स्वीकृत अन्य कई अलङ्कारों का अन्त भाव मान लिया है। इस प्रकार रुद्रट का मत उत्प्रेक्षा में अन्तभुक्त मान लिया गया। उनके उभयन्यास, प्रत्यतीकन्यास तथा प्रतीकन्यास अर्थान्तरन्यास में समाविष्ट कर दिये गये। परिकर में एकावली का अन्तर्भावन मान लिया गया। संसृष्टि और सङ्कर के स्थान पर केवल संसृष्टि का अस्तित्व स्वीकृत हुआ। उसीमें सङ्कर का अन्तर्भाव माना गया। हम देख चुके हैं कि सङ्कर और संसृष्टि में एकाधिक अलङ्कारों के एक अधिकरण में सन्निवेश की दो प्रक्रियाओं पर विचार किया गया है। वे एक ही अलङ्कार-विधान के दो रूप हैं । अतः, भोज के पूर्व भी कुछ आचार्यों ने केवल संसृष्टि के स्वरूप का विवेचन किया था, कुछ ने केवल सङ्कर के स्वरूप का और कुछ ने दोनों के स्वरूप का। भोज ने संसृष्टि में ही दोनों रूपों पर विचार किया है। भोज ने समाध्युक्ति नामक एक नवीन अलङ्कार का उल्लेख किया है; किन्तु इसका नाम-रूप दण्डी के समाधि गुण से अभिन्न है । दण्डी ने अन्य वस्तु के धर्म का अन्यत्र आरोप होने में समाधि गुण माना था। भोज ने समाधि-उक्ति का यही लक्षण स्वीकार किया है। भोज के मतानुसार मीलित अलङ्कार भी समाध्युक्ति का ही एक भेद है। भोज ने भाविक अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की है।
भोज के मतानुसार अपने आशय को प्रकट करने, अप्रकृत अर्थ की उत्थापना करने तथा अप्रकृत के अपदेश या छल में भाविक अलङ्कार होता है। इस प्रकार उन्होंने भाविक के उक्त तीन प्रकार स्वीकार किये हैं। उद्भद या प्रकटीकरण को भोज ने भाविक से अभिन्न माना है । अतः उद्भद की तीन प्रक्रियाए–व्यक्त, अव्यक्त तथा व्यक्ताव्यक्त-भी भाविक के तीन भेदों के रूप में स्वीकृत हुई हैं। इसमें सामान्यतः एक कथन से आत्म-भाव की, अप्रकृत अर्थ आदि की प्रतीति करायी जाती है। दूसरे शब्दों में इसमें कथित
१. स्वाभिप्रायस्य कथनं यदि वाप्यन्यभावना ।
अन्यापदेशो वा यस्तु त्रिविधं भाविक बिदुः ॥ मते चास्माकमुद्भदो विद्यते नैव भाविकात् । व्यक्ताव्यक्तोभयाख्याभिस्त्रिविधः सोऽपि कथ्यते ।।
-भोज, सर०कण्ठा० ४,३०८--३०९