Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 737
________________ ७१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण का ज्ञान अपेक्षित माना है। यह सामान्य से इसका भेद स्पष्ट कर देता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने सामान्य से भ्रान्तिमान् का भेद स्पष्ट करने के लिए भ्रान्तिमान् की परिभाषा में सदृश धर्मी में अन्य धर्मी के ज्ञान पर बल दिया है ।२ भ्रान्तिमान में किसी धर्मी में उससे भिन्न धर्मी का निश्चयात्मक ज्ञान होता है; पर सामान्य में दो धर्मियों का धर्म निर्विशिष्ट रूप में ग्रहण होता है। सामान्य और रूपक उद्योतकार के अनुसार रूपक में उपमेय में उपमान के तादात्म्य की शब्दतः प्रतीति होती है; पर सामान्य में प्रस्तुत के धर्म का अप्रकृत के धर्म से तादात्म्य-निबन्धन शब्दतः प्रतीत नहीं होता । रूपक में उपमेय की उपमानतया प्रतीति होती है; पर सामान्य में प्रस्तुत और अप्रस्तुत की एकरूपतया प्रतीति होती है, इस आधार पर भी कुछ विद्वानों ने सामान्य और रूपक का भेदनिरूपण किया है। सामान्य और अतिशयोक्ति रूपकातिशयोक्ति में उपमान के ही कथन से उपमेय की भी प्रतीति होती है; पर सामान्य में दोनों वस्तुओं का कथन होता है । अतिशयोक्ति में उपमेय की उपमान-रूप में प्रतीति होती है; पर सामान्य में दो वस्तुओं की एकरूपतया प्रतीति होती है। उद्योतकार ने इसी आधार पर दोनों का भेद-निरूपण' किया है। १. "तस्य तथाविधस्य दृष्टौ सन्यां यत् अप्राकरणिकतया संवेदनम् स भ्रान्तिमान् । -मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १३२ की वृत्ति तथा उसपर बालबोधिनी टीका, पृ० ७३३ .. लक्षणे (भ्रान्तिलक्षणे) मीलितसामान्यतद्गुणवारणाय धर्मिग्रहणद्वयम् । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४२१ ३. ..."नापि रूपकप्रथमा तिशयोक्तिभ्यां ( सामान्यस्य सङ्करः) उपमेये उपमानतादात्म्यस्य शब्दादप्रतीतेः रूपकाभावात् उपमानतावच्छेदकरूपेणाप्रतीयमानत्वान्नातिशयोक्ति: ""इति उद्योते स्पष्टम् । रूपक-- प्रथमातिशयोक्त्योश्च उपमेयस्य उपमानतया प्रतीतिः अत्र (सामान्य), तु एकरूपतया प्रतीतिरिति ततो भेद इत्यपि केचिद्वदन्ति । -काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ७३६ ४. वही

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