Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 769
________________ ७४६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (१) उदाहरण में सामान्य का समर्थन ऐसे विशेष से होता है, जिसका उद्देश्य अंश तो विशष होता है; पर विधेयांश समान्यगत होता है; किन्तु अर्थान्तरन्यास में सामान्य के समर्थक विशेष के उद्देश्य अंश तथा विधेय अंश दोनों विशेष होते हैं। दूसरे शब्दों में उदाहरण में सामान्य और विशेष का एक रूप विधेयान्वय होता है; पर अर्थान्तरन्यास में, ऐसा नहीं होता। (२) उदाहरण में अवयवावयवी भाव के बोधक 'इव' आदि का उल्लेख होता है, अर्थान्तरन्यास में इवादि का उल्लेख नहीं होता। ' विमशिनीकार ने दोनों का भेद निरूपित करते हुए कहा था कि भर्थान्तरन्यास में विशेष से सामान्य का समर्थन इस उद्देश्य से किया जाता है कि उससे सामान्य वाक्यार्थ उपपन्न हो सके, पर उदाहरण में स्वतः उपपन्न सामान्य अर्थ का समर्थन उसकी प्रतीति के विशदीकरण के लिए किया जाता है । पण्डितराज जगन्नाथ ने उदाहरण के एक स्वीकृत उदाहरण में यह दिखाया है कि वहाँ सामान्य का समर्थन उस अर्थ के उपपादन के लिए ही किया गया है। अतः, सामान्य अर्थ का उपपादन अर्थान्तरन्यास का व्यवच्छेदक नहीं माना जा सकता। दोनों अलङ्कारों में भेद-निरूपण पूर्वोक्त दो आधारों पर ही होना चाहिए।' पण्डितराज की मान्यता उचित ही जान पड़ती है । रूपक और निदर्शना पण्डितराज जगन्नाथ ने रूपक और निदर्शना का भेद निरूपित करते हुए यह मन्तव्य प्रकट किया है कि रूपक में उपमेय तथा उपमान; दोनों का उपादान होता है; पर निदर्शना में उपमेय का उपादान नहीं होता। निदर्शना साध्यवसाना लक्षणा पर आश्रित अलङ्कार है । रूपक में प्रकृत पर अप्रकृत का आरोप होता है पर निदर्शना में दोनों के बीच आर्थ अभेद रहता है जो आरोप और अध्यवसान से भी भिन्न होता है । शोभाकर ने यह शङ्का उठायी है कि यदि प्रकृत वाक्यार्थ पर अन्य वाक्यार्थ का समानाधिकरण से निर्देश निदर्शना है तो वाक्या रूपक से उसका क्या भेद होगा ?3 इसका समाधान यह है कि रूपक में सादृश्यमूला १. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५२ २. (रूपकलक्षणे) उपमेयतावच्छेदकपुरस्कारेण ति विशेषणादपह्न ति .... ___ निदर्शनानां निरासः । "अतिशयोक्तिनिदर्शनयोश्च साध्यवसानलक्ष.. णामूलकत्वादुपमेयतावच्छेदकस्य नास्ति पुरस्कारः । —वही, पृ० ३५४-५५ ३. द्रष्टव्य-शोभाकर, अलङ्काररत्नाकर, पृ० २१

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