Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 831
________________ 505] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण * सामान्यतः अलङ्कार का अध्ययन काव्य के सौन्दर्य के सन्दर्भ में ही हुआ है । उसे कभी काव्य-सौन्दर्य का पर्याय माना गया, में कभी काव्य सौन्दर्य का आधान करने वाला धर्म कहा गया तो कभी काव्य के सहज सौन्दर्य की वृद्धि में सहायक माना गया । कभी उसे काव्य का अनित्य धर्म मान कर काव्य के शरीर के माध्यम से उसकी आत्मा 'रस' का यदा-कदा उपकार करने वाला तत्त्व कहा गया । किन्तु, अलङ्कार का क्षेत्र काव्योक्ति तक ही सीमित नहीं । काव्य-भाषा की तरह लोक भाषा में भी अलङ्कारों का बहुधा प्रयोग हुआ करता है । कहीं-कहीं तो कथन के प्रभाव का वृद्धि के लिए अलङ्कारों का प्रयोग किया जाता है; पर कहीं-कहीं अलङ्कार अर्थ-बोध के अनिवार्य साधन बन कर आते हैं । एक ही वर्ण के जो आश्रय-भेद से अनेक रूप होते हैं उन्हें लौकिक उमान का सहारा लिये बिना शब्दों से बोधगम्य नहीं बनाया जा सकता। ज्ञात के सहारे अज्ञात को जानने में अलङ्कार सहायक होते हैं । उपमान को ज्ञान का एक साधन माना गया है । लोक व्यवहार का ज्ञान हो, शब्दार्थ का ज्ञान हो या तत्त्वज्ञान हो - सबमें उपमान सहायक होता है । दर्शन में तत्त्व - ज्ञान के साधन के रूप में उपमान के स्वरूप का विशद विवेचन हुआ है । वही उपमान-धारणा काव्यालङ्कार के क्षेत्र में आयी और उपमा आदि औपम्यगर्भ अलङ्कारों के स्वरूप कल्पित हुए । तात्पर्य यह कि सामान्य रूप से भाषा में अर्थ - बोध के अनिवार्य साधन के रूप में तथा अर्थ की प्रभाववृद्धि के साधन के रूप में भी अलङ्कारों के स्वरूप पर विचार किया जाना चाहिए । * भारतीय अलङ्कारशास्त्र में अलङ्कारों की संख्या चार से बढ़कर शताधिक हो गयी । आचार्य भरत ने उपमा, रूपक, दीपक तथा यमक; इन चार अलङ्कारों के स्वरूप का तथा उनके कुछ भेदों का विवेचन किया था । भरत के पूर्व वैदिक साहित्य में अनेक अलङ्कारों का सुन्दर प्रयोग हो चुका था । निश्चय ही भरत उन प्रयोगों से परिचित रहे होंगे; पर उन्होंने उनके स्वरूप का निरूपण नहीं किया । भरत की अलङ्कार मीमांसा के सम्बन्ध में विद्वानों की अलग-अलग धारणाएँ रही हैं । कुछ विद्वानों ने भरत के समय अलङ्कार-धारणा को अविकसित मानकर सन्तोष कर लिया है तो कुछ विद्वानों भरत की सीमा का औचित्य इस युक्ति से प्रमाणित करना चाहा है कि भरत केवल नाटकों में प्रयुक्त होने वाले अलङ्कारों को दृष्टि में रखकर उनका विवेचन किया था; अतः अलङ्कारों की सीमित संख्या उन्होंने स्वीकार की ।

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