Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 833
________________ ८१० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारों का मूल भरत आदि की गुण-धारणा में पाया जा सकता है । अर्थव्यक्ति गुण के आधार पर स्वभावोक्ति आदि अलङ्कार की कल्पना इसका प्रमाण है। स्मृति, वितर्क, परिसंख्या आदि की धारणा के आधार पर तत्तदलङ्कारों की कल्पना की गयी है। इनका विवेचन दर्शन में हो रहा था । प्रमाणालङ्कारों की धारणा का उत्स भी दार्शनिक चिन्तन ही है। एक अलङ्कार के सादृश्य के आधार पर दूसरे अलङ्कार की कल्पना की गयी । एक के वैपरीत्य के आधार पर भी दूसरे अलङ्कार का स्वरूप कल्पित हुआ। अधिक के वैपरीत्य के आधार पर अल्प के स्वरूप की कल्पना इसका एक उदाहरण है। अलङ्कार के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण के फलस्वरूप भी अनेक नवीन अलङ्कारों की उद्भावना हुई। जब वस्तु, भाव आदि के वर्णन को भी अलङ्कार का क्षेत्र मान लिया गया तब वस्तु-भाव-वर्णन-परक अनेक अलङ्कारों की कल्पना की गई। भाविक, उदात्त आदि अलङ्कारों की कल्पना इसीका फल है। अनेक आचार्यों ने समय-समय पर जो अलङ्कार-विषयक नूतन उद्भावनाएं की हैं, उनके महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः, भट्ट तौत तथा अभिनव गुप्त की यह मान्यता कुछ परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है कि लक्षण के योग से ही अलङ्कारों में विविधता आती है। सम्भव है कि केवल औपम्यगर्भ अलङ्कार को लक्ष्य कर उन्होंने यह मान्यता व्यक्त की हो। अभिनव गुप्त अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च मानते भी हैं । औपम्यगर्भ अलङ्कारों के सम्बन्ध में यह मान्यता ठीक है; किन्तु समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च को देखते हुए इस मान्यता की सीमा स्पष्ट है। हाँ, अभिनव की इस व्याख्या से इतना अवश्य प्रमाणित होता है कि भरत की अलङ्कार-धारणा उननी अविकसित नहीं थी, जितनी वह संख्या-परिमिति के कारण आपाततः जान पड़ती है। * अलङ्कार-धारणा के विकास-क्रम में नवीन-नवीन अलङ्कारों की उद्भावना का ही प्रयास नही हुआ; समय-समय पर वैज्ञानिक पद्धति पर अलङ्कारों की संख्या को सीमित करने का भी प्रयास हुआ है। अनन्त वाग्विकल्प के प्रकार को अनन्त अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लेने पर उनके स्वरूप का अध्ययन कठिन हो जाता। अतः, वैज्ञानिक रीति से अलङ्कारों के स्वरूप-निर्धारण की आवश्यकता समय-समय पर जान पड़ी। अलङ्कार के प्रति विशिष्ट दृष्टिकोण भी इसका दूसरा कारण हुआ। वामन आदि को केवल उपमा-मूलक अलङ्कारों का अलङ्कारत्व ही मान्य था । इसलिए अलङ्कारों की संख्या को उन्होंने सीमित किया । कुन्तक वस्तु-वर्णन को अलङ्कार्य

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