Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 843
________________ परिशिष्ट २ पारिभाषिक शब्दावली : व्याख्या अगतिक गति - आश्रयहीन के आश्रय के अर्थ में अगतिक गति पद का प्रयोग किया जाता है । शास्त्र में जहाँ किसी बात का यौक्तिक समाधान नहीं मिलने पर कुछ दूराकृष्ट कल्पना कर ली जाती है उसे 'अगतिक गति कहा जा सकता है । अनन्वय में किसी वस्तु की ठीक उसी वस्तु के साथ उपमा को असम्भव मानकर वाक्यमीमांसकों ने जो यह कल्पना कर ली कि 'ऐसे स्थल में वर्ण्य वस्तु की कल्पान्तर में स्थित उसी वस्तु से उपमा सम्भव होती है' उसे वाचस्पति मिश्र ने अगतिक गति कहकर युक्तिहीन प्रमाणित किया है । | अङ्गाङ्गिभाव - दो या अधिक वस्तुओं में जहाँ एक प्रधान तथा अन्य उसकी अपेक्षा गौण हो वहाँ उनके पारस्परिक सम्बन्ध को अङ्गाङ्गि भाव सम्बन्ध माना जाता है । अध्यवसाय - वर्ण्य विषय का निगरण कर अर्थात् उसे अप्रधान बनाकर उसके साथ विषयी का अभेद प्रतिपादन अध्यवसाय कहलाता है । यह अध्यवसाय सिद्ध हो तो अतिशयोक्ति और असिद्ध या सम्भावना के रूप में हो तो उत्प्रेक्षा का स्वरूप- विधान होता है । अन्वयव्यतिरेक - यह नियम और अपवाद की तार्किक पद्धति है । एक के रहने पर दूसरे के अनिवार्यतः रहने का नियम अन्वय कहलाता है । एक के अभाव में दूसरे का नियमतः अभाव होना व्यतिरेक कहा जाता है । लक्ष्य तथा लक्षण में अन्वयव्यतिरेक के आधार पर ही लक्षण के औचित्य की परीक्षा की जाती है । अन्वयव्यतिरेक के अभाव में लक्षण में अव्याप्ति तथा अतिव्याप्ति दोष आ जाते हैं । मम्मट आदि आचार्यों ने अन्वयव्यतिरेक के आधार पर शब्दालङ्कार आदि का सीमा निर्धारण किया है । इस आधार पर जहाँ किसी शब्द की जगह पर्यायवाची शब्द को रख देने से अलङ्कारत्व नष्ट हो जाय अर्थात् जहाँ पर्याय- परिवर्तन सम्भव न हो वहाँ शब्दालङ्कार तथा जहाँ पर्याय परिवर्तन सम्भव हो, वहाँ अर्थालङ्कार माना गया है ।

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