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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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सार और वर्धमानक
शोभाकर ने सार से वर्धमानक की स्वतन्त्र सत्ता मानी है। रूप और धर्म से एक की अपेक्षा दूसरे का आधिक्य दिखाना वर्धमानक का लक्षण माना गया है। इस प्रकार शोभाकर के अनुसार दोनों में थोड़ा-सा भेद यह होगा कि सार में जहाँ उत्तर-उत्तर का परावधि उत्कर्ष दिखाने से उत्कर्ष की एक शृङ्खला-सी बन जाती है, वहाँ वर्धमानक में उत्तरवर्ती का उत्कर्ष-मात्र दिखाना पर्याप्त माना जाता है, उसकी शृङ्खला आवश्यक नहीं। पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि सार का भी सौन्दर्य उत्तरोत्तर उत्कर्ष-वर्णन में ही है, केवल शृङ्खला में नहीं। केवल शृङ्खला का सौन्दर्य, कारणमाला आदि का विषय है। अतः, उनकी दृष्टि में दोनों अलङ्कारों का सौन्दर्य अभिन्न है।' उद्योतकार ने वर्धमानक की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना अनावश्यक मानी है। उनकी युक्ति है कि उत्कर्ष की अन्तिम सीमा तक उत्तरोत्तर का उत्कर्ष-वर्णन और रूप-गुण से पूर्ववर्ती की अपेक्षा परवर्ती का आधिक्य-वर्णन तत्त्वतः भिन्न नहीं है । अतः, वर्धमानक भी सार में ही अन्तर्भूत माना जाना चाहिए । २ वस्तुतः, दोनों का भेद नगण्य है। इतने थोड़े भेद के आधार पर नवीन अलङ्कार की कल्पना के पीछे प्राचार्य शोभाकर का मौलिकता-प्रदर्शन का मोह ही है। ऐसे मोह के लिए केवल शोभाकर ही दोषौ नहीं, परवर्ती काल के अनेक आचार्यों में ऐसा कल्पना-विलास देखा जा सकता है ।
सार और पर्याय
पर्याय में एक आधार में क्रम से अनेक वस्तुओं की स्थिति का वर्णन होता है; पर सार में अनेक वस्तुओं में क्रमिक उत्कर्ष-पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर के उत्कर्ष का वर्णन होता है। अतः दोनों का स्वरूप परस्पर भिन्न है।'
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३८ २. एतेनेदृशे विषये वर्धमानालङ्कारोऽतिरिक्तः इति ( रत्नाकराध क्तम् ) __ अपास्तम् ।-काव्यप्रकाश, उद्योत, उद्ध त बालबोधिनी, पृ० ७१३ ३. यदि च वक्ष्यमाण एकाश्रये क्रमेणानेकाधेयस्थितिरूपः पर्यायोऽत्र प्रतीयते
तदा सोऽप्यस्तु तर्हि तेन पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्कर्षरूपः सारोऽन्यथासिद्धः शक्यः कर्तुम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७३७-८
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