Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 785
________________ ७६२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण भाविक और अतिशयोक्ति 'अलङ्कारसर्वस्व' में यह तथ्य स्पष्ट किया गया है कि भाविक को भतिशयोक्ति में अन्तभुक्त नहीं माना जा सकता। अतिशयोक्ति में अन्य अर्थ का भन्य रूप में अध्यवसान-विषय का निगरण कर विषरी के साथ अभेदप्रतीति-होता है; पर भाविक में भूत, आदि अर्थ का अभूत आदि अर्थ के रूप में अध्यवसान नहीं होता। उसमें भूत आदि अर्थ का उसी रूप में प्रत्यक्षायमाणत्व अपेक्षित रहता है।' भाविक और उत्प्रेक्षा भाविक में भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्ष रूप में वर्णन होता है। यह प्रश्न किया जा सकता है कि भूत और भावी अर्थों का, जो वस्तुतः अप्रत्यक्ष अर्थ हैं, जहाँ प्रत्यक्ष रूप में वर्णन होगा, वहाँ अप्रत्यक्ष की प्रत्यक्ष रूप में सम्भावना प्रतीत होगी। इवादि के प्रयोग के अभाव में इवार्थ-सम्भावना-- की प्रतीति होने से भाविक गम्या उत्प्रेक्षा का ही एक रूप माना जा सकता है, फिर भाविक की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना का क्या आधार होगा? अलङ्कारसर्वस्वकार ने भाविक तथा गम्या उत्प्रेक्षा का भेद स्पष्ट करते हुए इस शङ्का का युक्तिपूर्ण समाधान प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षा का विधायक साध्य अध्यवसान-अन्य वस्तु में अन्य के अभेद की सम्भावना होता है। भाविक में साध्य अध्यवसान नहीं रहता। उसमें अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष के रूप में भध्यवसान नहीं होता, वरन् सहृदय पाठक कल्पना-दृष्टि से अप्रत्यक्ष अर्थ को प्रत्यक्ष देख पाते हैं। यह अप्रत्यक्ष अर्थ का साक्षात् बिम्बग्रहण भाविक का स्वरूप है, जो उत्प्रेक्षा से स्वतन्त्र है ।२ भाविक और काव्यलिङ्ग भाविक का काव्यलिङ्ग से केवल इस आधार पर भेद नहीं किया जा सकता कि काव्यलिङ्ग में लिङ्ग से लिङ्गी का बोध होता है; पर भाविक में १. नापीदम् (भाविकम्) अतिशयोक्तिः अन्यस्यान्यतयाध्यवसायाभावात् । -रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २२२ २. नापि भूतभाविनामप्रत्यक्षाणां प्रत्यक्षतयैव प्रतीतेरिवार्थगर्भी कारेणेयं प्रतीयमानोत्प्रेक्षा, तस्या अभिमानरूपाध्यवसायस्वभावत्वात् । नहि अप्रत्यक्ष प्रत्यक्षत्वेनाध्यवसीयते, किं तर्हि, काव्यार्थविद्भिः प्रत्यक्षं दृश्यत इति । -वही, पृ० २२३

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