Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 820
________________ अलङ्कार और मनोभाव [७६७. औपम्यगर्भ अलङ्कारों को ही काव्य के अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है। इस मान्यता में कुछ दुराग्रह हो सकता है; पर इसमें सन्देह नहीं कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण अलङ्कार औपम्यगर्भ अलङ्कार-वर्ग में ही आते हैं। उपमा में दो वस्तुओं-प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत-में सादृश्य के आधार पर वर्ण्य वस्तु की अवर्ण्य के साथ तुलना की जाती है। सादृश्य में दो वस्तुओं में कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष की धारणा रहती है । दोनों में कुछ समान धर्म न हों तो दोनों की तुलना का कोई आधार ही नहीं होगा और यदि दोनों में अपने-अपने विशेष धर्म न रहें तो, दोनों में कुछ भेद ही नहीं रह जायगा। उपमा आदि में भेद तथा अभेद दोनों समान रूप से प्रधान रहते हैं; अतः उन्हें मेदाभेदतुल्य-. प्रधान अलङ्कार माना गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपमा अलङ्कार पर विचार करने से कई तथ्य सामने आते हैं। प्रस्तुत के समकक्ष जो अप्रस्तुत रखा जाता है उससे प्रमाता का मन अलग-अलग दो बिम्ब ग्रहण करता है। एक साथ मन एक से अधिक अर्थ ग्रहण नहीं करता। अनेक अर्थों के बोध में एक सूक्ष्म क्रम अवश्य रहा करता है। उपमा में पहले उपमान भी रखा जा सकता है और उपमेय भी। इस प्रकार मन एक का बिम्ब-ग्रहण कर अव्यवहित रूप से अन्य का भी बिम्ब ग्रहण करता है। मन में उभरने वाला एक बिम्ब अपने समीपस्थ दूसरे बिम्ब को प्रभावित कर देता है। उपमान के गुणोत्कर्ष की जो धारणा प्रमाता में पहले रहती है, उस गुणोत्कर्ष की धारणा के साथ मन में उभरने वाला अप्रस्तुत का बिम्ब प्रस्तुत के गुणोत्कर्ष की धारणा को जगाने में भी सहायक होता है। इस प्रकार वर्णनीय विषय के साथ अन्य वस्तु के बोध कराने की प्रक्रिया से उपमा मनोभाव का विस्तार करती है। कहीं-कहीं अर्थ की स्पष्टता में भी उपमा सहायक होती है। ऐसी स्थिति में स्पष्टता में सहायक होकर उपमा मन के विकास का भी हेतु बनती है; पर स्पष्टता उपमा का सार्वत्रिक धर्म नहीं है। शास्त्रीय उपमान की कल्पना सभी पाठकों के मन मे अर्थबोध स्पष्ट करने में सहायक नहीं भी हो सकती। जहाँ प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि के उत्कर्ष के उद्देश्य से ही अत्यन्त उत्कृष्ट गुण आदि वाले उपमान की योजना की जाती है, वहाँ पाठक का मन चमत्कृत भी हो उठता है । शत्रु पर आक्रमण के वेग का बोध कराने के लिए यदि यह कहा जाय कि 'विद्य त् के वेग से वह शत्रु पर टूट पड़ा' तो विद्य त्-वेग का बोध पाठक के मन को चमत्कृत ही करेगा। स्पष्टतः उपमा को किसी एक मनोदशा से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। वह मन के

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