Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 817
________________ ७९४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विवेचन में उपमान को ज्ञान का एक प्रमाण माना गया है। नीलगाय गाय के समान होती है, इस कथन से गाय का ज्ञान सादृश्य के आधार पर नील गाय के ज्ञान में सहायक होता है। पूर्वानुभूत दो सदृश वस्तुओं में से एक का ज्ञान दूसरे की स्मृति जगा देता है। काव्य में प्रस्तुत वस्तु के लिए जो अप्रस्तुत की योजना की जाती है, उसकी प्रक्रिया पर इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टि में रखकर विचार किया जा सकता है । सामान्यतः यह माना जाता है कि प्रस्तुत वस्तु के रूप-गुण आदि को और अधिक उत्कर्ष प्रदान करने के लिए अधिक गुणवान् उपमान की योजना की जाती है। कवि वर्ण्य वस्तु के सम्बन्ध में पाठक की निश्चित धारणा जगाने के लिए उसके मन में किसी ऐसी वस्तु की धारणा जगा देता है, जिसके रूप-गुण के विशिष्ट प्रभाव से पाठक का मन पहले से परिचित रहता है। यह विशिष्ट प्रभाव जगकर प्रस्तुत का भी वैसा ही प्रभावपूर्ण चित्र बना देता है। अप्रस्तुत के रूप-गुण की-सी ही अनुभूति प्रस्तुत के रूप-गुण की भी हो जाती है। काव्य के भावन की प्रक्रिया की दृष्टि से निश्चय ही उक्त रूप में अप्रस्तुत प्रस्तुत के उत्कर्ष में सहायक होता है; पर काव्य की सृजन-प्रक्रिया को दृष्टि से भी सादृश्यमूलक अलङ्कार में उपमान-योजना के मनोवैज्ञानिक महत्त्व पर विचार किया जाना चाहिए। इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कवि के मन में उपमेय का सौन्दर्य-बोध सादृश्य के कारण अनेक अप्रस्तुतों की स्मृति अनायास ही जगा देता है। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत के सौन्दर्य-बोध की अभिव्यक्ति के क्रम में अनेक अप्रस्तुत स्वतः आ मिलते हैं। रससिद्ध कवि की भावाभिव्यक्ति की इसी सहज प्रक्रिया को दृष्टि में रखकर आनन्दवर्धन ने कहा होगा कि उनके काव्य में आगे आकर अभिव्यक्ति पाने के लिए उपमानों में होड़ लग जाती है। इस तरह कहीं-कहीं प्रस्तुत के उत्कर्ष साधन में उपमान सहायक बनाकर लाये जाते हैं तो कहीं-कहीं वे अनायास ही कवि की अनुभूति के अङ्ग बनकर आ जाते हैं। साधर्म्य के साथ वैधर्म्य के आधार पर भी अनेक अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण किया गया है । एक ही अलङ्कार का स्वरूप-विधान साधर्म्य से भी होता है और वैधर्म्य से भी। अतः साधर्म्य तथा वैधयं के आधार पर अलङ्कारों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करना कठिन है। विरोधमूलक, अतिशयमूलक आदि अलङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में भी आचार्यों की दृष्टि किसी-न-किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य पर रही थी। विरोध,

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