Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 798
________________ अलङ्कार और भाषा [७७५ पदों का प्रयोग करने के समय इस बात पर ध्यान नहीं देता कि वह अलङ्कार का प्रयोग कर रहा है। उक्त वाक्यों में केशरी, पिशाच, अङ्गार, भूषण, कलङ्क आदि उपमान हैं, जो नर, कुल आदि वर्ण्य वस्तुओं के साथ प्रयुक्त हैं। ऐसे प्रयोग लोक-व्यवहार तथा काव्योक्तियों में समान रूप से पाये जाते हैं। अब यह निर्णय कौन कर सकेगा कि ऐसे प्रयोग लोकव्यवहार से काव्य की उक्ति में आये या पहले कवि-कल्पना से उद्भूत होकर लोक-मुख में व्यवहृत होने लगे? इतना निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भाषा में-चाहे वह लोक-भाषा हो या काव्य की भाषा-अलङ्कार का प्रयोग जाने-अनजाने होता ही रहा है। कहीं प्रतिपाद्य अर्थ को अधिक प्रभावपूर्ण और रमणीय बनाने के लिए सायास अलङ्कार की योजना की जाती है; कहीं अर्थ के स्पष्टीकरण के क्रम में अलङ्कार के विना अर्थ का ठीक-ठीक ग्रहण सम्भव नहीं होने पर अलङ्कार का विधान किया जाता है तो कहीं-कहीं प्रस्तुत वस्तु के वर्णन के क्रम में उसके साथ अतिशय सादृश्य आदि के कारण अनायास ही कोई अप्रस्तुत वस्तु वर्णन करने वाले के सामने आ जाती है और वह प्रस्तुत से मिलकर अलङ्कार का विधान कर देती है। लोक-भाषा और काव्य-भाषा की उक्तियों के बीच कोई स्थिर विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। लोकोक्तियों के साथ भा मानव-हृदय का रागात्मक सम्बन्ध रहता है। अतः, ऐसी उक्तियों में भी रसात्मकता आ जाती है और वे उक्तियाँ काव्योक्तियों की तरह सुन्दर बन जाया करती हैं। कवि लोकोक्तियों को काव्य में ग्रहण करते हैं। अलङ्कार के कुछ आचार्यों ने लोकोक्ति को काव्य का एक अलङ्कार भी माना है ।' लोकोक्ति को अलङ्कार मानने में दो मत हो सकते हैं, पर इस तथ्य में मतभेद का अवकाश नहीं कि असंख्य उक्तियाँ लोक-व्यवहार से काव्य में ली जाती हैं। काव्य की उक्तियां भी जब बहुत प्रसिद्ध हो जाती हैं तब लोक-मुख में उनका निर्बाध व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार काव्योक्ति और लोकोक्ति में पारस्परिक आदानप्रदान चलता रहता है। लोक-विश्वास तथा लोक की उक्तियों के आधार पर कितने ही महान् कवियों ने अनेक सुन्दर कल्पनाएँ की हैं। मेघ के गर्जन से छत्रक का आविर्भाव होता है और उसके आविर्भाव से धरती उर्वरा होती है, १. जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि आचार्यों ने लोकोक्ति को अलङ्कार माना है। उन्होंने छेकोक्ति का भी आधार लोकोक्ति को ही माना है। -द्रष्टव्य, कुवलयानन्द, ६०-६१

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