Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 779
________________ ७५६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अभेदाध्यवसान अतिशयोक्ति का और व्यवहार का अभेदाध्यवसान ललित का विशिष्ट लक्षण है । ' प्रत्यनीक और हेतूत्प्रेक्षा प्रत्यनीक में प्रतिपक्षी के सम्बन्धी का तिरस्कार होता है। हेतूत्प्रक्षा की तरह प्रत्यनीक में भी हेतु का अंश सम्भावित होता है; पर हेतुत्प्रेक्षा से प्रत्यनीक का वैशिष्ट्य इस बात में है कि उसमें प्रतिपक्षी का साक्षात् बाधन न दिखाकर ' तत्सम्बन्धिबाधन' दिखाया जाता है और इस प्रकार प्रतिपक्षी के सम्बन्धी के बाधन से प्रतिपक्षी का बाधान भी सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार क्षा से प्रत्यनीक को स्वतन्त्र अलङ्कार प्रमाणित किया गया है । अवज्ञा और अतद्गुण अवज्ञा उल्लास का प्रतिपक्षी है और अतद्गुण तद्गुण का तार्किक पद्धति पर जगन्नाथ का कहना है कि प्रतियोगी के भेद से इन दोनों अलङ्कारों का पारस्परिक भेद सिद्ध ही है । 3 दोनों की प्रकृति की तुलना से दोनों का पृथक्-पृथक सौन्दर्य स्पष्ट हो जाता है कि अतद्गुण में वस्तुविशेष का अपने गुण का त्याग तथा अन्य के गुण का ग्रहण न करना वर्णित होता है, पर अवज्ञा में अन्य के गुण-दोष से अन्य में गुण-दोष का आधान न होने का वर्णन होता है । दूसरे शब्दों में, अतद्गुण में दूसरे के गुण-दोष का अग्रहण दिखाया जाता है तो अवज्ञा दूसरे के गुण-दोष से भी दूसरे व्यक्ति में गुण-दोष का अनाविष्कृत होना वर्णित होता है । एक में अन्य के गुण के ग्रहण का अभाव है तो दूसरे में अन्य के गुण से प्रभावित रहने के कारण वैसे ही आत्म-गुण के आविष्कार का अभाव । अवज्ञा और विशेषोक्ति अवज्ञा और विशेषोक्ति को कुछ आचार्यों ने अभिन्न मान लिया है, कारण यह है कि विशेषोक्ति की तरह अवज्ञा में भी (एक के गुण-दोष से दूसरे में गुण १. न चात्र (ललिते) भेदेऽप्यभेद इत्यतिशयोक्त्या गतार्थतेति वाच्यम् । तत्र हि पदार्थेन पदार्थस्यैवाभेदाध्यवसानं न तु व्यवहारेण व्यवहारविषय एवायमतिशयोक्त े: । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६३ इस सन्दर्भ में कुवलयानन्द, पृ० १४७ - ४६ भी द्रष्टव्य । २. द्रष्टव्य – जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७८३-८४ ३. न चायं ( अतद्गुणः ) अवज्ञाया नातिरिच्यते । उल्लासविपर्ययोह्यवज्ञा तद्गुणविपर्ययश्चातद्गुण इति प्रतियोगिभेदादेव भेदस्य सिद्ध: । - वही, पृ० ८१३

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