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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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समुच्चय और काव्यलिङ्ग
समुच्चय में (कारण समुच्चय में) कार्य-विशेष के साधक अनेक कारणों का सह-भाव विवक्षित होता है; पर काव्यलिङ्ग में हेतु-मात्र का कथन अपेक्षित होता है। हेतु का वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में जहाँ उपन्यास होता है, वहां काव्यलिङ्ग का स्वरूप सम्पन्न हो जाता है। उसमें हेतु के एक या अनेक होने का विचार नहीं किया जाता; पर समुच्चय में कारण की अनेकता आवश्यक है ।' अनेक कारणों का एकत्र सद्भाव होने पर ही समुच्चय का रूपविधान सम्भव है। समुच्चय और दीपक
क्रिया के समुच्चय और क्रिया-दीपक में मुख्य भेद यह है कि समुच्चय में अनेक क्रियाओं की युगपत् स्थिति विवक्षित होती है, जबकि क्रिया-दीपक में अनेक क्रियाएँ युगपत् नहीं, क्रम से अर्थात् कालभेद से विवक्षित रहती हैं ।२ समुच्चय और पर्याय ___ 'अलङ्कारसर्वस्व' में प्रस्तुत अलङ्कारों के भेदक तत्त्व के विषय में कहा गया है कि समुच्चय में गुण, क्रिया आदि अनेक पदार्थों की युगपत् स्थिति का वर्णन होता है; पर पर्याय में क्रमेण अनेक के एकत्र सद्भाव का वर्णन होता है। पदार्थों का योगपद्य समुच्चय का तथा अयोगपद्य अर्थात् ऋमिक सद्भाव पर्याय का
१. काव्यलिङ्ग हेतुत्वमात्र विवक्षितम् न तु हेतूनां गुणप्रधानभावस्यै
कत्वानेकत्वस्य वा चिन्ता। अत्र (समुच्चये) तु एकस्यैव तत्कार्यकारित्वेऽन्येषां साहाय्यमात्रमिति ततो विशेषः।
-काव्यप्रकाश उद्योत से बालबोधिनी में उद्ध त पृ० ६८६ २. स त्वन्यो ( समुच्चयः ) युगपद् या गुणक्रियाः ।-मम्मट, काव्यप्र०:
१०,११६ तथा-युगपदिति क्रमव्यावृत्त्यर्थम् तेन दीपके नातिव्याप्तिः दीपके सतीष्वपि बह्वीषु क्रियासु योगपद्य न विवक्षितं किं तु क्रम
कालभेद एवेति बोध्यम् । —वही, झलकीकरकृत टीका, पृ० ६८६ ३. तथा एकस्मिन्नाधारेऽनेकमाधेयं यत् तिष्ठति, स द्वितीयः पर्यायः ।
नन्वत्र समुच्चयालङ्कारो वक्ष्यत इत्येतदर्थमपि क्रमेणेति योज्यम् । अत एव 'गुणक्रियायोगपद्य समुच्चय' इति समुच्चयलक्षणे योगपद्यब्रहणम् । अत एव क्रमाश्रयणात् पर्याय इत्यन्वर्थमभिधानम् ।।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८५-८६