________________
७३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विशेष औचित्य नहीं जान पड़ता । अतथ्य - वर्णन को भी अत्युक्ति का एक व्यवच्छेदक धर्म माना जा सकता है ।
समुच्चय और समाधि
रुय्यक, मम्मट आदि आचार्यों ने गुण क्रिया की युगपत् स्थिति के वर्णन के अतिरिक्त समुच्चय का एक और स्वरूप स्वीकार किया है, जिसमें प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहते उसके अन्य साधक का भी अस्तित्व वर्णित होता है । समाधि में किसी कार्य के एक कारण के साथ कारणान्तर का योग हो जाने से कार्य की सुकरता का वर्णन होता है। दोनों अलङ्कारों का पारस्परिक भद बताते हुए उद्योतकार ने कहा है कि समाधि में एक कारण से कार्य के निष्पाद्यमान होने पर अकस्मात् उपस्थित अन्य कारण से कार्य की सुकरता विवक्षित होती है ।' 'अलङ्कारसर्वस्व' में समाधि में अन्य साधक का काकतालीयन्याय से अकस्मात् योग तथा समुच्चय में खलेकपोतन्याय से अनेक साधकों: का एकत्र अवतार अपेक्षित माना गया है । २ कार्य - सौकर्य - वर्णन में ही समाधि का अलङ्कारत्व है; पर समुच्चय का अलङ्कारत्व एक कार्य के सम्पादन में अनेक कारणों के खलेक-पोतन्याय से उपस्थित होने में है । जगन्नाथ की भी यही मान्यता है । 3 तास यह कि एक हेतु से निष्पाद्यमान कार्य के, कारणान्तर के योग से सौकर्य की विवक्षा समाधि का तथा कार्य सम्पादन में समर्थ अनेक कारणों का सहभाव समुच्चय का विशेषाधायक धर्म है । दूसरी बात यह कि समाधि में एक हेतु प्रधान और अन्य सहकारी - मात्र होते है; पर समुच्चय में सभी कारण प्रधान ही होते हैं ।
१. समाधौ हि एकेन कार्ये निष्पाद्यमानेऽन्येनाकस्मादापतता सौकर्यादिरूपातिशयसम्पादनम् । ( अत्रतु) एककार्यसम्पत्तौ सर्वेषां खलेकपोतन्यायेन पातः कार्यस्य च न कोऽप्यतिशयः । — काव्यप्रकाश, उद्योत उद्धृत, बालबोधिनी, पृ० ६८६ : २. यत्र ह, येकस्य कार्य प्रति पूर्ण साधकत्वम्, अन्यस्तु सौकर्याय काकता-लायन्यायेनापति, तत्र समाधिवक्ष्यते । यत्रतु खलेकपोतिकया बहूनामवतारस्तत्र समुच्चयः । अतश्चानयोः सुमहान् भेदः ।
—रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २०१ :
३. द्रष्टव्य – जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७७७