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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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स्वरूप का निश्चय करना चाहता है या कर लेता है, वहाँ निश्चयगर्भ या निश्चयान्त सन्देह मानने की अपेक्षा वितर्क मानना ही युक्तिसङ्गत जान पड़ता है। शुद्ध सन्देह तो किसी वस्तु में दो वस्तुओं के ज्ञान की अनिश्चयात्मक दशा को ही कहा जा सकता है। सन्देह की दशा में ही वितर्क से तत्त्व-निर्णय किया जाता है। अतः, सन्देह वितर्क का अनुप्राणक है। इसीलिए कुछ आचार्यों ने वितर्क का सौन्दर्य भी सन्देह में ही मानकर वितर्क को सन्देह में अन्तर्भुक्त माना है। थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों की कल्पना यदि ग्राह्य हो तो वितर्क को भी सन्देह से स्वतन्त्र अलङ्कार माना जा सकता है। डॉ० राघवन ने वितर्क को सन्देह से अभिन्न माना है।' यह युक्तिसङ्गत नहीं। अनन्वय और असम
वर्ण्य विषय को अद्वितीय प्रतिपादित करने के लिए उसके अन्य उपमान का अभाव अनन्वय और असम; दोनों में दिखाया जाता है। दोनों अलङ्कारों में कवि का उद्देश्य समान है; पर रूप-विधान की दृष्टि से दोनों में भेद यह है कि अनन्वय में अन्य उपमान का अभाव बताने के लिए उपमेय को ही उसका उपमान बता दिया जाता है; अर्थात् उसमें जो वस्तु उपमेय होती है, वही अपना उपमेय भी होती है । इस तरह अन्य उपमान का व्यवच्छेद प्रतीत होता है; पर असम में वर्ण्य के अन्य सम्भावित उपमान का निषेध किया जाता है। इस प्रकार उपमानान्तर का अभाव सूचित करने के लिए उपमेय को ही उसका —अपना ही–उपमान (एक ही वस्तु को उपमेय तथा उपमान) कल्पित करना अनन्वय का तथा उपमेय की अन्य वस्तु के साथ उपमा का सर्वथा निषेध करना असम का व्यवच्छेदक है । अनन्वय में अन्य सादृश्य का व्यवच्छेद व्यङ म्य होता है, असम में वाच्य। श्लेष और वक्रोक्ति ___श्लेष में एक पद के अनेक अर्थ निकलते हैं। वक्रोक्ति में ( श्लेष-वक्रोक्ति में ) भी वक्ता के एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त वाक्य का श्लेष के सहारे उसके विवक्षित अर्थ से भिन्न अर्थ लगा लिया जाता है। इसमें वाक्य का एक
१. Vitarka is the old Samsaya or Sasandeha.
-Dr. Raghavan, Bhoja's Sringara Prakash, पृ० ३८७