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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३४३ जिसका अधिकार हो, वह काम कोई और कर दे; परन्तु उसका नाम न ले. वहाँ विक्षेप अलङ्कार होता है। यह चमत्कार के अभाव के कारण अलङ्कार नहीं। मिथ्याध्यवसित के साथ उसी रूप वाले मिथ्या अलङ्कार की भी कल्पना रसरूप ने की है। जिसमें सब झूठ का ही वर्णन किया जाता हो, वह रसरूप के अनुसार मिथ्या अलङ्कार है ।२ केवल मिथ्या-वर्णन अलङ्कार नहीं। अप्पय्य दीक्षित की मिथ्याध्यवसिति-धारणा को ठीक-ठीक न समझ पाने के कारण सम्भवतः रसरूप ने मिथ्या का यह स्वरूप मान लिया है।
निष्कर्ष यह कि रसरूप ने अलङ्कार-धारणा के विकास में कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं दिया। नये नाम के जो अलङ्कार 'तुलसीभूषण' में आये हैं, वे मौलिकता-प्रदर्शन-मात्र के लिए कल्पित हैं। धन्यता का प्रहर्षग में तथा निर्णय का उल्लेख में अन्तर्भाव सम्भव है। विक्षेप तथा मिथ्या चमत्कारहीन होने के कारण वस्तुतः अलङ्कार नहीं। बैरीसाल
_ 'भाषाभरण' में बैरीसाल ने 'कुवलयानन्द' की पद्धति पर अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है। उन्होंने अप्पय्य दीक्षित का ऋण स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है। अप्पय्य दीक्षित के प्रमाणालङ्कारों के विवेचन के उपरान्त बैरीसाल ने चार और प्रमाणों का निर्देश किया है। वे हैं-पुराण-प्रमाण, आगम-प्रमाण, आचार-प्रमाण और आत्मतुष्टि-प्रमाण। इनके लक्षण नहीं, केवल उदाहरण दिये गये हैं। उक्त प्रमाणों से भारतीय पाठकों का इतना घनिष्ठ परिचय है कि उन्हें परिभाषित करने की आवश्यकता ही बैरीसाल को नहीं जान पड़ी होगी। इन प्रमाणों की कल्पना नवीन नहीं, फिर भो यह बैरीसाल की चिन्तनशीलता का एक प्रमाण तो है ही। जमत सिह
जगत सिंह ने 'साहित्य-सुधानिधि, में शब्दालङ्कारों तथा अर्थालङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया है १. जो जाको अधिकार है, करे और. सो काम । ताहि कहत विक्षेप है, लहै न ताको नाम ॥
-रसरूप, तुलसी भूषण पृ० ३४ २. मिथ्या तासों कहत हैं जो मिथ्या सब होइ। वही, पृ० ३४ ३. रीति कुवलयानन्द की, कीन्हौं भाषाभर्ण ।
-बैरीसाल, भाषाभरण, पृ० ३६