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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [ ६७६ ने परिणाम को 'व्यवहारान्त आरोप' कहा है।' इसी तथ्य को दृष्टि में रख कर दूसरे टीकाकार जयरथ ने प्रकृत अर्थ का अप्रकृत अर्थ के व्यवहार से विशिष्ट होना परिणाम का स्वभाव माना है ।२ रूपक में प्रस्तुत वस्तु के रूप पर अप्रस्तुत के रूप का आरोप-मात्र होता है। यह रूप-समारोप परिणाम में भी होता है, साथ ही इसमें प्रकृत पर अप्रकृत के व्यवहार का भी समारोप होता है। रूपक में अप्रस्तुत प्रस्तुत को अपने रूप से सर्वथा रूपित कर लेता है । अतः उसमें प्रस्तुत गौण होकर अप्रस्तुत के रूप में खो जाता; है पर परिणाम में प्रस्तुत की भी उपयोगिता शेष रहती है। अप्पय्य दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ के शब्दों में परिणाम में विषयी विषयात्मतया ही प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है । अतः, आरोप्यमाण की ही विषय के साथ ताद्प्य-प्रतीति होती है।3 नागेश भट्ट के अनुसार रूपक में उपमानप्रतियोगिक अभेद तथा परिणाम में उपमेय-प्रतियोगिक अभेद दिखाया जाता है। फलतः, प्रस्तुत अपना स्वरूप नहीं खोता। नेत्रकमल रूपक का उदाहरण है। इसमें उपमान कमल उपमेय नेत्र को अपने रूप से रूपित कर लेता है। नेत्र-कमल के रूप में अपना अस्तित्व मिला देता है; पर परिणाम की इस उक्ति में-'नयन-कमल से देख रही है'-देखना क्रिया में नयन की उपयोगिता शेष रहती है। अतः, कमल से रूपित होने पर भी नयन (अपनी उपयोगिता के कारण) कमल में खो नहीं जाता। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए उद्योतकार ने कहा है कि परिणाम में आरोप्यमाण विषयी विषयात्मतया ही प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है, स्वतन्त्र रूप से नहीं। पर, रूपक में ऐसी बात नहीं होती। १. अतो व्यवहारान्तमारोपः, न तु रूपकन्यायेन रूपसमारोपमात्रम्।
-चक्रवर्ती, सञ्जीवनी-टीको, पृ० ५८ २. प्रकृतमप्रकृतव्यवारविशिष्टतयावतिष्ठते ।-जयरथ, विमशिनी पृ० ५१ ३. परिणाम: क्रियार्थश्चेद्विषयी विषयात्मना।-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द,
२१ तथा-उपरञ्जकतामाहार्यताद्र प्यनिश्चयगोचरतामेतीत्यनेन सन्देहोत्प्रेक्षासमासोक्तिपरिणामभ्रान्तिमत्स्वतिव्याप्तिनिरासः। 'समासोक्तिपरिणामयोविषयताद्र प्यस्यागोचरत्वात् .. इत्याहुः।
-जगन्नाथ, रसँगङ्गाधर, पृ० ३५७-५८ ४. उपमानप्रतियोगिकाभेदो रूपकम् । उपमेयप्रतियोगिकाभेदः :परिणामः
प्रतीपवत् ।-रसगङ्गाधर, नागेश की टीका, पृ० ३६२ ५. यत्त आरोप्यमाणो यत्र विषयात्मतयैव प्रकृतकार्योपयोगी न स्वातन्त्र्येण स परिणामः । अत्र च विषयाभेदः आरोप्यमाणे उपयुज्यते, रूपके तु 'वमिति विशेषः।-काव्यप्र० उद्योत से बालबोधिनी में उद्ध त,पृ० ५६४