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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[६८७ और अपह्नति का भेद-निरूपण किया जा सकता है । अपह्न ति में प्रकृत का निषेध कर उसपर अप्रकृत का आरोप किया जाता है। अतः वह आरोपगर्भ अलङ्कार है। उत्प्रेक्षा में विषय का निगरण कर विषयी से उसके अभेद की प्रतीति–साध्याध्यवसाय के रूप में करायी जाती है। अतः उत्प्रेक्षा अध्यवसायगर्भ अलङ्कार है। उत्प्रक्षा और अतिशयोक्ति ___ उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति दोनों ही अध्यवसायगर्भ अलङ्कार हैं। दोनों में विषय का निगरण कर विषयी के साथ उसकी अभेद-प्रतीति करायी जाती है। दोनों में मुख्य भेद अध्यवसाय (अर्थात् विषय का निगरण कर विषयी के साथ अभेद प्रतीति) के सिद्ध तथा साध्य होने का है। अतिशयोक्ति में अध्यवसाय सिद्ध होता है, पर उत्प्रेक्षा में वह साध्य या सम्भावना के रूप में रहता है। उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान
उत्प्रेक्षा में भी किसी वस्तु में उससे भिन्न किसी वस्तु की सम्भावना की जाती है और भ्रान्तिमान में भी किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु का ज्ञान होता है, पर दोनों में भेद यह है कि उत्प्रेक्षा में एक वस्तु में अन्य वस्तु की सम्भावना आहार्य होती है, जबकि भ्रान्तिमान में किसी वस्तु में अन्य वस्तु की प्रतीति अनाहार्य होती है। वामन ने भ्रान्तिमान् से उत्प्रेक्षा के भेदनिरूपण के लिए उत्प्रेक्षा के लक्षण में 'अतिशयार्थ' पद का उल्लेख किया है। उत्प्रेक्षा में विशेष चमत्कार उत्पन्न करने के लिए किसी वस्तु में अन्य की सम्भावना की जाती है । वक्ता वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता हुआ चमत्कार के लिए उसमें अन्य वस्तु की सम्भावना करता है। भ्रान्तिमान में वस्तु के यथार्थ रूप का ज्ञान नहीं होता। उसमें अन्य वस्तु की एककोटिक निश्चयात्मक प्रतीति होती है । उत्प्रेक्षा में एक वस्तु में अन्य की सम्भावना (उत्कट कोटि का संशय) होती है । अतः इसमें सम्भावना की आधारभूत वस्तु १. अध्यवसाये व्यापारप्राधान्ये उत्प्रेक्षा। तथाअध्यवसितप्राधान्ये त्वतिशयोक्तिः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसूत्र २१ और २२ २. अतद्र पस्यान्यथाध्यवसानमतिशयार्थमुत्प्रेक्षा।।
-वामन, काव्यालङ्कार, सूत्र ४, ३, ६