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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६७७ और उपमान के बीच किसी साधारण धर्म का निर्देश पर्याप्त
होता है। (२) उपमा में 'इव' आदि वाचक शब्द का प्रयोग होता है ( वाचकलुप्ता
उपमा में भले वह लुप्त हो ); पर समुच्चय में 'इव' आदि वाचक
शब्द का प्रयोग नहीं होता। रूपक और साम्य
साम्य में उपमेय का उपमान से सर्वात्मना साम्य दिखाने के लिए उपमे य के द्वारा ही उपमान का कार्य सम्पादित किये जाने का वर्णन होता है। अतः, रूपक से साम्य की समता इस बात में है कि साम्य में उपमान के कार्य का उपमेय पर आरोप हो जाता है। भोज ने उपमा और रूपक से साम्य की स्वरूपगत समता को दृष्टि में रखते हुए साम्य-लक्षण में 'उपमारूपकान्यत्वे' का उल्लेख किया है। टीकाकार जगद्धर ने उक्त पद के व्याख्यान-क्रम में कहा है क यद्यपि तीनों में (उपमा, रूपक और साम्य में) सादृश्य है, फिर भी उनमें रचना-प्रकार का भेद है।' रूपक में एक वस्तु पर अन्य वस्तु काप्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप किया जाता है, साम्प में उपमेय और उपमान के बीच समान गुण आदि के कारण उपमेय का उपमान से अर्थ-क्रिया से समता दिखायी जाती है । रूपक और समुच्चय
औपम्य-वर्गगत समुच्चय में रूपक की सम्भावना का निवारण करने के लिए रुद्रट ने उपमानोपमेय-भाव की आवश्यकता पर बल दिया है। रूपक में अभेद की प्रधानता होती है, पर औपम्यगर्भ समुच्चय उपमा आदि की तरह 'भेदाभेद-तुल्य-प्रधान अलङ्कार है। रूपक और अतिशयोक्ति ___ रूपक के भेद में अपह्नव-रहित अभेद का निरूपण होता है, अर्थात् परस्पर भिन्न उपमेय और उपमान में से उपमेय पर उपमान का आरोप कर
१. यद्यपि त्रिषु सादृश्यमस्ति तथापि प्रकारकृतो भेद इति भावः ।
-सरस्वतीकण्ठाभरण, ४-३४ की टीका पृ० ३६७ २. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८, १०३ तथा उसपर नमिसाधुकृत
टिप्पणी-एवमपि रूपकत्वं स्यादित्यत आह-सत्युपमानोपमेयत्व इति । रूपके ह्यभेद एव हेतुभेदः । नमिसाधु-टिप्पणी, पृ० २८८