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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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के बीच भेद और अभेद की तुल्यप्रधानता रहती है। इस प्रकार उपमा भेदाभेदतुल्यप्रधान और परिणाम अभेदप्रधान अलङ्कार है। उपमा और उभयन्यास
आचार्य रुद्रट ने उभयन्यास अलङ्कार का निरूपण करते हुए उपमा से उसके साम्य-वैषम्य का सङ्केत दिया है। यह ध्यातव्य है कि उभयन्यास का नाम-मात्र नवीन है; उसका स्वरूप अन्य आचार्यों के प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार से अभिन्न है। अतः, उपमा से उभयन्यास को व्यावर्तित करने वाले वे ही तत्त्व हैं, जिन तत्त्वों पर प्रतिवस्तूपमा के व्यावर्तक के रूप में विचार किया जा चुका है। नमिसाधु ने उपमा तथा उभयन्यास के प्रधान भेद का निर्देश करते हुए कहा है कि उपमा में उपमान तथा उपमेय के बीच साधारण धर्म का तथा 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्दों का निर्देश होता है; पर उभयन्यास में उनका उल्लेख नहीं होता। इस सन्दर्भ में उपमा और प्रतिवस्तूपमा का 'भेद द्रष्टव्य है। उपमा और साम्य
रुद्रट, भोज आदि ने उपमा से पृथक् साम्य अलङ्कार का अस्तित्व स्वीकार किया है। उपमा में दो वस्तुओं में सादृश्य निरूपित होता है; पर साम्य में दो वस्तुओं के बीच साधारण रूप से रहने वाले गुण-क्रिया-संस्थान आदि के कारण उपमेय का उपमान के साथ अर्थक्रिया से सर्वात्मना साम्य दिखाया जाता है। समान गुण आदि के कारण जहाँ उपमेय के द्वारा ही उपमान का कार्य किये जाने का वर्णन हो, वहाँ साम्य होगा। इस प्रकार रूप-विधान की दृष्टि से उपमा और साम्य के प्रथम रूप में यह भेद है कि उपमा में कवि उपमेय और उपमान के बीच केवल सादृश्य दिखाता है; पर साम्य में दोनों के बीच सादृश्य के कारण उपमेय के द्वारा उपमान का कार्य किये जाने का वर्णन करता है। 'मुख चन्द्रमा-सा कान्तिमान है' यह कथन तो उपमा का उदाहरण होगा; पर अपनी कान्ति से मुख ही चन्द्रमा का काम (प्रकाश) कर रहा है',
१. एवमभेदप्रधानेष्वपि रूपकापह्न तिपरिणामभ्रान्तिमदुल्लेखादिषु....... ____नास्त्युपमालङ कृतित्वम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० २४८,४६ २. उपयायां हि सामान्यस्येवादेश्च प्रयोगः इह (उभयन्यासे) तु नैवेत्यर्थः ।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,८५ पर नमिसाधु की वृत्ति, पृ० २८२