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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भ्रमात्मक प्रतीति सम्भव नहीं । जिसने कभी साँप को देखा नहीं हो, अथवा उसके सम्बन्ध में सुनकर उसकी कोई रूपरेखा मन में नहीं बनायी हो, उसे रज्जु को देखकर उसमें साँप का ज्ञान नहीं होगा, अन्य किसा वस्तु का ( लकड़ी आदि का ) असत्य ज्ञान भले हो । किसी कारण से भ्रम का परिहार हो जाने पर अनुभूयमान वस्तु का यथार्थ ज्ञान पुनः हो जाता है । अस्तु !
अलङ्कार के रूप में दार्शनिकों की समग्र भ्रान्ति धारणा को स्वीकार न कर आचार्यों ने कवि-प्रतिभा से कल्पित काव्यात्मक भ्रान्ति को ही भ्रान्ति या भ्रान्तिमान् अलङ्कार माना है । सभी प्रकार की उक्तियाँ तो काव्यात्मक उक्तियाँ होती नहीं । अलङ्कार-विधान के लिए उक्ति में चारुता आवश्यक है । यह कवि की प्रतिभा से ही उत्पन्न होती है । इस प्रकार कवि-प्रतिभा से किसी वस्तु में सादृश्य के कारण उससे भिन्न वस्तु की भ्रमात्मक प्रतीति का रमणीय वर्णन आचार्यों के द्वारा भ्रान्तिमान् अलङ्कार माना गया ।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप का प्रथम निर्देश दण्डी के 'काव्यादर्श' में मिलता है । उन्होंने इसे उपमा का एक भेद मानकर मोहोपमा नाम से अभिहित किया था । अन्य वस्तु में अन्य का ज्ञान 'मोह' कहलाता है । यही भ्रम है । इस प्रकार सादृश्य के कारण एक वस्तु को उससे भिन्न वस्तु समझ लेने में दण्डी ने मोहोपमा माना था । पीछे चल कर इसे ही भ्रान्तिया भ्रान्तिमान् व्यपदेश मिला । दण्डी के उत्तरवर्ती उद्भट तथा वामन ने इस अलङ्कार की चर्चा नहीं की ।
रुद्रट ने सर्वप्रथम इसका निरूपण स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में किया । उसे परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि जहाँ किसी अर्थविशेष ( अर्थात् उपमेय ) को देखता हुआ ज्ञाता उसके सदृश अन्य वस्तु का ( उपमान का ) संशयरहित अर्थात् निश्चयात्मक ज्ञान करता है, वहाँ भ्रान्तिमान् अलङ्कार होता है । भोज ने भी भ्रान्ति अलङ्कार का यही स्वरूप निरूपित किया है | मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, विद्यानाथ, शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित,
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २,२५
२. अर्थविशेषं पश्यन्नवगच्छेदन्यमेव तत्सदृशम् । निस्सन्देहं यस्मिन्प्रतिपत्ता भ्रान्तिमान् स इति ॥
३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० ३,३५
— रुद्रट, काव्यालं० ८,८७