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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६५७ को एक ही मानकर उसके दो भेद स्वीकार किये हैं, पर ध्यातव्य है कि जहाँ दण्डी ने सङ्कीर्ण के लिए 'नानालङ्कारसंसृष्टि' पद का प्रयोग किया था, वहाँ रुद्रट ने 'सङ्कर' शब्द का प्रयोग किया।' दण्डी के द्वारा प्रयुक्त संसृष्टि तथा रुद्रट के द्वारा प्रयुक्त सङ्कर पर्यायवाची है। दण्डी तथा रुद्रट के बीच उद्भट के द्वारा सङ्कीर्णालङ्कार के लिए संसृष्टि और सङ्कर, इन दो संज्ञाओं की कल्पना हो चुकी थी, पर रुद्रट ने सम्भवतः उसे अनावश्यक माना । __ भोज ने दण्डी की तरह संसृष्टि का व्यापक स्वरूप मानकर उसीमें सङ्कर को अन्तर्भुक्त मान लिया। अलङ्कारों की परस्पर निरपेक्षता तथा सापेक्षता पर उसके भेद के रूप में विचार किया गया ।
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि आचार्यों ने उद्भट की तरह संसृष्टि तथा सङ्कर का परस्पर स्वतन्त्र रूप में निरूपण किया। उन्होंने उद्भट की संसृष्टि-सङ्कर-परिभाषा को ही स्वीकार भी किया। स्पष्ट है कि संसृष्टि और सङ्कर के स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्यों की मान्यता में एकरूपता रही है। अलङ्कारों का परस्पर निरपेक्ष भाव से एकत्र अवस्थान संसृष्टि का तथा उनका परस्पर सापेक्ष भाव से एकत्र अवस्थान सङ्कर का सर्वमान्य लक्षण है।
सङ्कर और संसृष्टि के नाम तथा उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित तीन मत व्यक्त हुए हैं :
(१) अलङ्कारों का सङ्कीर्ण रूप संसृष्टि कहलाता है तथा संसृष्टि के दो रूप हैं-अनेक अलङ्कारों का परस्पर सापेक्ष तथा निरपेक्ष रूप से एकत्र संयोजन होना।
(२) अलङ्कार के सङ्कीर्ण रूप को सङ्कर कहते हैं और उसके उपरिलिखित दो रूप हैं । और
(३) संसृष्टि तथा सङ्कर अलग-अलग हैं। अलङ्कारों की परस्पर निरपेक्ष भाव से एकत्र योजना संसृष्टि है तथा उनकी परस्पर सापेक्ष योजना सङ्कर है। १. योगवशादेतेषां तिलतण्डुलवच्च दुग्धजलवच्च । व्यक्ताव्यक्तांशत्वात्सङ्कर उत्पद्यते द्वधा ॥
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, १०, २५ २. द्रष्टव्य,-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, ८८-६० ३. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, २०७-८, रुय्यक, अलङ्कार
सूत्र, ८४-८५, विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२६-२८ ४२