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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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दिखाया जाता है । जब कवि को वर्ण्य वस्तु के समान अन्य कोई वस्तु नहीं मिल पाती, जिसे वह वर्ण्य का उपमान बना सके तब वह वर्ण्य वस्तु को ही — उपमेय को ही — उसका उपमान भी कल्पित कर लेता है । अनन्वय में जो उपमेय होता है, वही अपना उपमान भी होता है । इस प्रकार उपमा और अनन्वय में सादृश्य - निरूपण की प्रक्रिया की समानता होने पर भी दोनों में कवि का उद्देश्य अलग-अलग रहता है । उपमा में वर्ण्य वस्तु का अन्य वस्तु ( उपमान) के साथ सादृश्य विवक्षित रहता है पर अनन्वय में वर्ण्य वस्तु के अन्य किसी भी वस्तु के साथ सादृश्य के अभाव की प्रतीति विवक्षित रहती है । वर्ण्य का अन्य वस्तु के साथ सादृश्य-व्यवच्छेद दिखाने के लिए ही कवि उपमेय को ही एक मात्र उसके (उपमेय के ) समान बताता है । पण्डितराजजगन्नाथ की मान्यता है कि कल्पितोपमा में भी असत् उपमान की कल्पना से प्रकारान्तर से सत् उपमान का निषेध सूचित होता है । इस प्रकार अन्य सादृश्य-व्यवच्छेद –— सत् उपमान- व्यवच्छेद - कल्पितोपमा और अनन्वय में समान रूप से विवक्षित रहता है । अतः, कल्पितोपमा से अनन्वय का व्यवच्छेदक उसमें उपमान तथा उपमेय की एकता ही है । '
प्रश्न यह है कि सादृश्य दो या अनेक वस्तुओं के बीच ही सम्भव होता है । वह दो या दो से अधिक वस्तुओं के बीच रहने वाला धर्म है; फिर एक ही वस्तु में सादृश्य-निरूपण की क्या युक्ति होगी ? अप्पय्य दीक्षित आदि कुछ आचार्यों ने अनन्वय संज्ञा की सार्थकता अन्यसादृश्य-व्यवच्छेद के अतिरिक्त अपने में अपने सादृश्य के अन्वय के अभाव में भी मानी है । किसी वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सादृश्य ही अन्वित होता । उस वस्तु का उसी के साथ सादृश्य दिखाने में अन्वय का अभाव रहता है । अतः, उन आचार्यों के अनुसार अनन्वय अन्वर्थ अभिधान है । लेकिन अनन्वित कल्पना को काव्यालङ्कार का स्वरूप मानना समस्या का सन्तोषजनक समाधान नहीं है । समुद्रबन्ध ने उक्त
१. कल्पितोपमायामतिप्रसङ्गवा रणायैकोपमानोपमेयकमिति । अत्रासत उपमानस्य कल्पनया सदुपमानं नास्तीति द्वितीय सदृशव्यवच्छेदस्य । स्ति प्रतीतिः । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३२३
२. धर्मैक्ये हि स्वस्य स्वेनोपमा नान्वेतीत्यनन्वय इत्यन्वर्थं नाम । - अप्पय्यदीक्षित, चित्रमीमांसा पृ० ४६ । तथा — एकस्यैव सिद्धसाध्यरूपेणोपमानोपमेयत्वेना विद्यमानोऽन्वयः सम्बन्धो यत्र स तथोक्तः । -विमर्शनी, पृ० ३८