________________
६५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण है।' यह सर्वविदित तथ्य है कि लोक-जीवन में ऐसी असंख्य उक्तियाँ प्रचलित रहती हैं , जो अपनी अकृत्रिमता में ही प्रभावोत्पादक हुआ करती है। कवि लोक-जीवन का चित्रण करने के क्रम में ऐसी बहुत-सी उक्तियों का उपयोग करते है। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि लोक-प्रवाद की अनुकृति में लोकोक्ति अलङ्कार मानते हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने लोकोक्ति का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है। लोकोक्ति अलङ्कार की सत्ता स्वीकार करने में एक कठिनाई यह है कि लोक-उक्ति तथा कवि की उक्ति में भेद करना सरल नहीं । कवि लोक-प्रवाद का अनुकरण करता है, लोक-प्रचलित मार्मिक उक्तियों का काव्य में उपयोग करता है, तो असंख्य कवि-कल्पित उक्तियाँ भी सूक्तियों के रूप में लोक में "चल पड़ती है। यह आदान-प्रदान सनातन रूप से चलता रहता है । अतः काव्योक्ति तथा लोकोक्ति का विभाग कठिन है। काव्य में प्रयुक्त प्रत्येक उक्ति ( भले ही वह कभी लोकोक्ति रही हो ) काव्योक्ति होती है। उसे अलङ्कारविशेष मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। ऐसी उक्तियाँ अलङ्कार्य ही होंगी। अस्तु, एक ही सम्प्रदाय के आचार्यों के द्वारा स्वीकृत होने के कारण लाकोक्ति की धारणा एक-सी ही रही है। छेकोक्ति
छेकोक्ति का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है विदग्ध उक्ति; परन्तु अलङ्कारविशेष के रूप में उसका स्वरूप लोकोक्ति के सन्दर्भ में निरूपित हुआ है। लोक-प्रचलित उक्ति की अनुकृति (जो लोकोक्ति है ) यदि अर्थान्तरगर्भ हो, अर्थात् ऐसी उक्तियों से यदि अर्थान्तर की भी व्यञ्जना होती हो तो जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार छेकोक्ति अलङ्कार होगा।
जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने लोकोक्ति की तरह छेकोक्ति को भी स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया है। विकास की दृष्टि से छेकोक्ति का एक ही रूप कल्पित हुआ है। निरुक्ति
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने निरुक्ति को स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। उनकी धारणा है कि जहाँ व्युत्पत्ति से विशिष्ट अर्य का प्रतिपादन करने वाले संज्ञा-पद १. लोकप्रवादानुकृतिर्लोकोक्तिरिति भण्यते ।।
___-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १५७ २. छेकोक्तिर्य त्र लोकोक्तेः स्यादर्थान्तरगभिता ।—वही, १५८