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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [६३५: स्वीकार किया है । वे वस्तु की समृद्धि का वर्णन तथा महान व्यक्ति के चरित्र का उपलक्षण या अन्य वस्तु (प्रस्तुत वस्तु) का अङ्ग होना; ये दो रूप उदात्त के मानते हैं। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने भी इसी मत को स्वीकार किया है ।२ निष्कर्ष यह कि भामह से लेकर अप्पय्य दीक्षित तक उदात्त के दो रूप समान रूप से मान्य रहे हैं। हिन्दी-रीति-आचार्यों ने भी उदात्त के उन्हीं दो रूपों को स्वीकार किया है। रुद्रट के अवसर को भी उदात्त के दो रूपों का ही किञ्चित् परिष्कृत स्वरूप माना जा सकता है । अतः, अवसर भी उदात्त का ही अङ्ग है। उदात्त के सर्वमान्य दो रूप निम्नलिखित है(१) समृद्धिमय वस्तु का वर्णन तथा (२) महान चरित्र का उपलक्षण रूप
में अर्थात् अन्य वस्तु के अङ्ग के रूप में वर्णन । काव्यलिङ्ग
काव्यलिङ्ग कार्य-कारण-सम्बन्ध पर आश्रित अलङ्कार है। सर्वप्रथम उद्भट ने काव्यलिङ्ग अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना कर उसके स्वरूप का निरूपण किया। दर्शन में हेतु या लिङ्ग के स्वरूप का निरूपण हो चुका था; पर काव्यालङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति तथा स्वरूप-मीमांसा उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में ही प्रथम बार की गयी। उद्भट ने एक वस्तु से अन्य के स्मरण या अनुभव उत्पन्न कराये जाने में काव्यलिङ्ग अलङ्कार माना था ।3 काव्यलिङ्ग का अर्थ है काव्य-हेतु । इस अलङ्कार में एक वस्तु (वर्णित वस्तु) अन्य वस्तु की स्मृति या अनुभूति का हेतु बनायी जाती है। अतः काव्यलिङ्ग इसका अन्वर्थ अभिधान है। स्मृति पूर्वानुभूत वस्तु की ही होती है। अनुभव से तात्पर्य अननुभूतपूर्व वस्तु के प्रथम ज्ञान का है। अतः, उद्भट की काव्यलिङ्ग-परिभाषा का सार यह है कि जहाँ एक वस्तु का वर्णन सुनकर या पढ़कर श्रोता या पाठक के मन में अन्य वस्तु का ज्ञान-यदि वह वस्तु पूर्वानुभूत हो तो उसका स्मृति-रूप ज्ञान और यदि अननुभूतपूर्व हो तो
१. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्र० १०,१७६-७७, रुय्यक, अलं० सू० ८०-८१. __ तथा विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,१२३ ।। २. द्रष्टव्य-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, १६२ ३. श्र तमेकं यदन्यत्र स्मृतेरनुभवस्य वा । हेतुतां प्रतिपद्य त काव्यलिङ्ग तदुच्यते ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारस० ६,१४