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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६२३ रसवत् अलङ्कार में भामह ने शृङ्गार आदि रसों का स्पष्ट दर्शन अपेक्षित माना था।' अभिप्राय यह कि रसमय वाक्य को वे रसवत् अलङ्कार का उदाहरण मानेंगे। दण्डी ने भी भामह के मत को स्वीकार कर रसपेशल वाक्य को रसवत् अलङ्कार माना।२ उद्भट ने भामह के रसवत्-लक्षण को ही अधिक स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने रसोत्पत्ति की प्रक्रिया का भी निरूपण रसवत् अलङ्कार के सन्दर्भ में कर दिया है । इस प्रकार भामह, दण्डी तथा उद्भट रसवत् शब्द की व्युत्पत्ति रस शब्द से मतुप् प्रत्यय के योग से मानते थे। उनके अनुसार रसवत् अलङ्कार का अर्थ था रसयुक्त या रसमय अलङ्कार ।
जब रस या रसध्वनि की प्रतिष्ठा काव्य की आत्मा के रूप में हुई, तब रस-मात्र को अलङ्कार मानने में अनुपपत्ति जान पड़ी। काव्य का वह प्रधान तत्त्व अलङ्कार-विशेष के रूप में सीमित नहीं किया जा सकता था। अतः, आनन्दवर्धन ने रसवत् अलङ्कार के क्षेत्र की व्यवस्था करते हुए कहा कि जहाँ किसी अन्य अर्थ की प्रधानता हो और रस उसका अङ्ग हो, वहाँ रसवत् अलङ्कार होता है।४ अभिप्राय यह कि रस अप्रधान हो जाने पर अलङ्कारमात्र में पर्यवसित हो जाता है और रसवत् अलङ्कार कहलाता है।
कुन्तक ने रसमय वाक्य में रसवत् अलङ्कार मानने वाले मत का खण्डन किया। वे भामह आदि के रसवत् अलङ्कार को (रसमय कथन को) अलङ्कार नहीं मानते। ऐसे वाक्य उनके अनुसार अलङ्कार्य होते हैं, अलङ्कार नहीं। उनकी युक्ति है कि रस अलङ्कार्य है; अतः अलङ्कार उससे भिन्न होना चाहिए। यदि भामह आदि रस को ही अलङ्कार मानते थे तो उदाहरण में रस से भिन्न कुछ अलङ्कार्य दिखाया जाना चाहिए था, जिसे रस अलङ कृत करे, पर भामह, उद्भट आदि के रसवत्-उदाहरण में रस से भिन्न कुछ और अलङ्कार्य नहीं दिखाई पड़ता । अतः, भामह आदि का रसवत्-लक्षण अमान्य है। रसपेशल या रससंश्रय को भी अलङ्कार मानना उचित नहीं (जैसा कि
१. रसवद् दर्शितस्पष्टशृङ्गारादिरसं यथा ।—भामह, काव्यालङ्कार ३,६ २. .........."रसवद्रसपेशलम् ।।-दण्डी, काव्यादर्श, २,२७५ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ४,४-५ ४. रसादिरूपव्यङ ग्यस्य गुणीभावे रसवदलङ्कारविषयः ..........! -आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, पृ० ४६७ उसके द्वितीय उद्योत की
२७वीं कारिका भी द्रष्टव्य