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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है। रचना की समाप्ति तक कवि का भाव-विशेष व्यञ्जित होता रहता है । कथावस्तु आदि सभी काव्याङ्ग कवि के उस विशेष अभिप्राय को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। इसीलिए सम्पूर्ण रचना के गुण-भूत भाविक के लिए दण्डी ने यह अपेक्षित माना है कि रचना में आने वाली आधिकारिक तथा प्रासङ्गिक कथा-वस्तुएँ अङ्गाङ्गिभाव से एक दूसरे का उपकार करती हों, व्यर्थ विशेषणों का प्रयोग न हो, विषयों का अस्थान-वर्णन नहीं हो अर्थात् प्रकृत में उपयोगी वस्तुओं का ही वर्णन हो, अर्थप्रतिपादन-समर्थ पद-विन्यास से गम्भीर अर्थ की भी सरल अभिव्यक्ति होती हो। ये सब कवि के अभिप्राय को प्रेषणीय बनाते हैं; अतः कवि के भावायत्त हैं।' दण्डी ने भी भामह की पद्धति पर भाविक का स्वरूप-निरूपण अलङ्कार-विवेचन के प्रसङ्ग में ही किया है। भाव की प्रेषणीयता के इस गुण को अलङ्कार-विशेष तो नहीं माना जा सकता; पर सम्पूर्ण रचना के इस धर्म का सभी अलङ्कारों के साथ सङ्कर अवश्य स्वीकार किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में साभिप्राय विशेषण के ही प्रयोग को वाञ्छनीय मानकर दण्डी ने एक नवीन अलङ्कार की सम्भावना को जन्म दिया था, जो पीछे चलकर परिकर नामक स्वतन्त्र अलङ्कार बना । गम्भीर भाव की सरल व्यञ्जना में सहायक उक्ति-क्रम पर बल देकर दण्डी ने सभी उक्तिभङ्गियों का समावेश इसमें कर लिया है। नाटक की कथा-वस्तु की योजना में आधिकारिक तथा अवान्तर कथा-वस्तुओं के परस्पर उपकार्योपकारक-भाव की आवश्यकता पर विचार किया गया था। प्रबन्ध काव्य आदि में भी कथावस्तुओं की सङ्गति आवश्यक होती है। इन सब को समन्वित रूप से दण्डी ने प्रबन्ध-गुण कहकर उसे भाविक व्यपदेश दिया। स्पष्टतः, दण्डी की यह भाविक धारणा भूत और भावी अर्थ के प्रत्यक्षायमाणत्व की धारणा से भिन्न है। भोज ने दण्डी की तरह भाविक का सम्बन्ध भाव या अभिप्राय से माना है; पर कवि के अपने अभिप्राय-वर्णन के साथ अन्य की १. तद् भाविकमिति प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम् ।
भावः कवेरभिप्रायः काव्येष्वासिद्धि संस्थितः ॥ परस्परोपकारित्वं सर्वेषां वस्तुपर्वणाम् । विशेषणानां व्यर्थानामक्रियास्थानवर्णना ॥ उक्तिक्रमबलाद् व्यक्तिर्गम्भीरस्यापि वस्तुनः। भावायत्तमिदं सर्वमिति तद्भाविकं विदुः ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २,३६४-६६,