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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पण्डितराज जगन्नाथ ने ललित अलङ्कार का निरूपण करते हुए कुछ परिष्कृत रूप से उसे परिभाषित किया है। उनके अनुसार प्रकृत धर्मी के प्रकृत व्यवहार का उल्लेख न कर निरूप्यमाण अप्रकृत के व्यवहार से उसका सम्बन्ध निरूपित करना ललित है।' स्पष्टतः, जगन्नाथ की ललित-धारणा अप्पय्य दीक्षित की धारणा से तत्त्वतः अभिन्न है। उन्होंने अप्पय्य की परिभाषा में शब्द-मात्र का संशोधन किया है। वे ललित के निदर्शना के साथ निकट सम्बन्ध के तथ्य से परिचित थे।२ निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत के प्रतिबिम्ब अर्थात् उसके समान व्यवहार वाले अन्य का वर्णन कर प्रस्तुत का बोध कराना ललित का लक्षण माना गया है।
रसवत् आदि
भामह के समय से ही रसवत् आदि अलङ्कारों का विवेचन होता रहा है। रस-सम्प्रदाय के आचार्यों ने भी रस आदि को काव्य की आत्मा मान कर रस आदि के गौण हो जाने के स्थल पर रसवदादि अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है। रसादि ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने वालों ने रस के 'साथ भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता को रसादि कहकर प्रतिपादित किया है । इस प्रकार रसादि से तात्पर्य रस, भाव, रस-भाव के आभास, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता आदि का माना जाता है । अलङ्कार के क्षेत्र में भी रसवदादि अलङ्कार में रसवत् के साथ भाव, रस एवं भाव के आभास, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता पर आश्रित अलङ्कार परिगणित हैं । अनेक आचार्यों ने रसाश्रित अलङ्कार को रसवत्, भावाश्रित अलङ्कार को प्रेय, रसाभास तथा भावाभास पर अवलम्बित अलङ्कार को ऊर्जस्वी, रस तथा भाव के प्रशम (रस-भाव-शान्ति) पर आधृत अलङ्कार को समाहित माना है। प्रेय, ऊर्जस्वी तथा समाहित की धारणा भावादि से निरपेक्ष रूप में भी विकसित हुई है; पर अनेक आचार्यों के द्वारा रसवदादि अलङ्कार के प्रसङ्ग में उन अलङ्कारों का निरूपण होने के कारण हम रसवत् के साथ ही प्रेय, ऊर्जस्वी तथा समाहित के भी ऐतिहासिक विकास का अध्ययन करेंगे।
१. प्रकृतमिणि प्रकृतव्यवहारानुल्लेखेन निरूप्यमाणोऽप्रकृतव्यवहारसम्बन्धी ललितालङ्कारः।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६२ २. द्रष्टव्य-वही, पृ. ७६२-६३,