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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कार नहीं मानते । मम्मट ने रसवत् की तरह प्रोय का भी स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में अस्तित्व स्वीकार नहीं किया ।
रुय्यक ने रस - निबन्धन में रसवत् मानकर भाव- निबन्धन में प्रेय अलङ्कार माना । विश्वनाथ ने आनन्दवर्धन के मत का अनुसरण करते हुए भाव के गौण होने में प्रेय अलङ्कार माना है । २ प्रदेय का यही लक्षण अप्पय्य दीक्षित को भी मान्य है । उन्होंने कहा है कि इसे ही भाव ( रुद्रट) अलङ्कार भी कहा जाता है । 3 निष्कर्षतः, प्रदेय के दो रूप सामने आते हैं - ( क ) प्रियतर कथन - यह चाटूक्ति भी हो सकती है तथा प्रियजन के प्रति हार्दिक उद्गार भी तथा (ख) भाव - देवता, गुरु आदि विषयक रति, जो भाव में परिणत होती है तथा अन्य स्थायी, सञ्चारी आदि भाव -का अन्य अर्थ के प्रति गौण हो जाना ।
ऊर्जस्वी
कर्जस्वी की भी भामह ने कोई परिभाषा नहीं दी थी। उन्होंने उसके उदाहरण में ओजस्वी वाणी का निबन्धन दिखाया था । दण्डी ने ऐसे कथन में, जिसमें अहङ्कार प्रकट हो, ऊर्जस्वी अलङ्कार माना । ५ उद्भट ने ऊर्जस्वी का सम्बन्ध अनौचित्य प्रवर्तित रस-भाव से अर्थात् रसाभास एवं भावाभास से जोड़ा। उनके अनुसार रस तथा भाव के आभास का निबन्धन ऊर्जस्वी का -लक्षण है ।
ऊर्जस्वी अलङ्कार में आनन्दवर्धन को रसाभास तथा भावाभास का अङ्ग हो जाना अभीष्ट है । अलङ्कारवादी रुय्यक ने उद्भट की तरह रसाभास तथा भावाभास के निबन्धन में ऊर्जस्वी अलङ्कार माना है । विश्वनाथ
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१. 'भाव'''' निबन्धे प्रयः । रुय्यक, अलङ्कार-सूत्र, ८२ २. द्रष्टव्य - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,१२४
३. द्रष्टव्य - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८४
४. द्रष्टव्य - भामह, काव्यालङ्कार, ३,७ ५. ऊर्जस्वि रूढाहङ्कारम् । – दण्डी, काव्यादर्श, ६. अनौचित्यप्रवृत्तानां कामक्रोधादिकारणात् । भावानां च रसानां च बन्ध ऊर्जस्वि कथ्यते ॥
२,२७५
—उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० ४,६
७. द्रष्टव्य — रुय्यक, अलङ्कार-सू० २