________________
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [५५१ प्रत्यक्ष रहते हैं; पर उनके बीच व्यावर्तक धर्म के अभाव के कारण-गुण-साम्य के कारण दोनों का अलग-अलग ग्रहण नहीं होता। मीलित से इसका यह भेद है कि मीलित में एक से दूसरे का तिरोभाव हो जाने के कारण उसका प्रत्यक्ष ही नहीं हो पाता; पर सामान्य में दोनों का प्रत्यक्ष होता है। हाँ, दोनों में गुण-साम्य के कारण दोनों का एक दूसरे से भिन्न रूप में ग्रहण नहीं हो पाता। निष्कर्ष यह कि
(क) सामान्य में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत; दोनों का प्रत्यक्ष होता है।
(ख) दोनों के बीच व्यावर्तक विशेष का अभाव रहता है अर्थात् गुणसाम्य रहता है। फलतः
(ग) दोनों की एक संप में प्रतीति होती है। दोनों का परस्पर भिन्न रूप में ग्रहण नहीं होता। सामान्य अलङ्कार के स्वरूप में विकास की स्थिति नहीं आयी है। सामान्य के स्वरूप का विशद विवेचन दार्शनिकों में किया था । प्रस्तुत अलङ्कार की धारणा सामान्य-विषयक दार्शनिक चिन्तन पर ही आधृत है। तद्गुण और अतद्गुण
तद्गुण स्वरूप-विधान का दृष्टि से मीलित, सामान्य आदि का सजातीय है। इसमें एक वस्तु का दूसरी वस्तु के गुण-ग्रहण की धारणा व्यक्त की गयी है। मीलित में एक वस्तु दूसरी में तिरोहित हो जाती है, सामान्य में वस्तु परिलक्षित होने पर भी अपना वैशिष्ट्य खोकर दूसरी वस्तु से एक-रूप प्रतीत होने लगती है और तद्गुण में वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के गुण को ग्रहण कर लेती है। तद्गुण के वैपरीत्य के आधार पर पीछे चल कर अतद्गुण अलङ्कार की कल्पना की गयी है। ___रुद्रट ने तद्गुण के दो रूपों की कल्पना की । एक में उन्होंने कहा कि जहाँ समान गुण वाले ऐसे पदार्थों का, जिनका योग होने पर पृथक्पृथक् रूप लक्षित हो सके, संसर्ग होने पर अनेकत्व लक्षित न हो, वहाँ तद्गुण होता है ।' मम्मट ने इस रूप को सामान्य संज्ञा से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया। तबसे तद्गुण का यह रूप सामान्य अलङ्कार का रूप माना जाता रहा है । तद्गुण के १. यस्मिन्नेकगुणानामर्थानां योगलक्ष्यरूपाणाम् । संसर्ग नानात्वं न लक्ष्यते तद्गुणः स इति ॥
. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६,२२