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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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तथा (२) अन्य कार्य को करने में संलग्न व्यक्ति का अन्य कार्य कर बैठना ।' इस प्रकार असङ्गति के उक्त तीन प्रकार जयदेव आदि ने माने हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ ने पूर्ववर्ती आचार्यों की असङ्गति-धारणा को स्वीकार करने पर भी उसकी परिभाषा में परिष्कार किया है। उनके अनुसार 'हेतु और कार्य का ऐसा भिन्न-देशत्व-वर्णन जो आपाततः विरुद्ध जान पड़े, असङ्गति है ।२ वस्तुतः, भिन्न देश में कार्य-कारण के होने में जो विरोध असङ्गति में जान पड़ता है, वह प्रातिभासिक ही होता है। यदि यथार्थ विरोध हो तो वह काव्योक्ति नहीं, उन्मत्तोक्ति ही होगी। जगन्नाथ ने अप्पय्य दीक्षित की असङ्गति के द्वितीय रूप 'अन्यत्र करणीय का अन्यत्र कर देना' का इसी लक्षण में अन्तर्भाव माना है। यह उचित ही है। अन्य कार्य में संलग्न कर्ता के द्वारा अन्य कार्य कर देने को जगन्नाथ विभावना का एक भेद मानते हैं, असङ्गति नहीं।3 इस असङ्गति में तथा 'विरुद्ध कार्य-उत्पत्ति-रूप विभावना में थोड़ा भेद अवश्य है। कारण से विरुद्ध प्रकृति वाले कार्य की उत्पत्ति 'विभावना है किन्तु अन्य कार्य में संलग्न व्यक्ति के द्वारा इष्ट कार्य से भिन्न कार्य कर दिया जाना असङ्गति है। फिर भी दोनों के बीच भेद इतना कम है कि अप्पय्य की असङ्गति के इस रूप को विभावना का एक प्रकार मानने में कोई असङ्गति नहीं जान पड़ती। निष्कर्ष यह कि असङ्गति में कार्य और कारण का युगपत् भिन्न-भिन्न अधिकरण में सद्भाव दिखाया जाता है। यह 'भिन्न-देशत्व या वैयधिकरण्य विरुद्ध जान पड़ता है; पर वस्तुतः कारण-कार्य के भिन्न देशगत होने में जान पड़ने वाला वह विरोध प्रातिभासिक होता है, तात्त्विक नहीं। व्याधात
सर्वप्रथम रुद्रट ने व्याघात अलङ्कार की कल्पना की। इस अलङ्कार के नवीन नाम-मात्र की कल्पना रुद्रट ने की। उन्होंने उद्भट की विशेषोक्ति के
१. विरुद्ध भिन्नदेशत्वं कार्यहेत्वोरसङ्गतिः । तथा
अन्यत्र करणीयस्य ततोऽन्यत्र कृतिश्च सा। अन्यत्कतु प्रवृत्तस्य तद्विरुद्धकृतिस्तथा ॥
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयान्द ८५-८६ २. विरुद्धत्वेनापाततो भासमान हेतुकार्ययोवयधिकरण्यमसङ्गतिः ।
-जगन्नाथ, रसङ्गाधर, पृ० ६९८ ३. द्रष्टव्य-वही, पृ० ६६८-७०४