________________
"५५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुद्रट के अनुसार एक ही साथ वस्तु का आदान-प्रदान परिवृत्ति है। यह कभी-कभी तात्त्विक आदान-प्रदान के अभाव में भी उपचार से हो सकती है। उदाहरणार्थ; 'विरहोत्कण्ठा देकर चित्त का हरण', इस कथन में तात्त्विक प्रदान नहीं है, केवल उपचार से दान और ग्रहण की कल्पना है । वामन के उदाहरण में भी औपचारिक विनिमय की धारणा प्रकट की गयी थी। स्पष्ट है कि वामन, रुद्रट आदि सभी आचार्य तात्त्विक विनिमय या कुछ देकर कुछ लेने में तो परिवृत्ति मानते ही थे, उपचार से जहां वस्तुओं के विनिमय या पारस्परिक परिवर्तन का बोध होता हो, वहाँ भी वे परिवृत्ति का सद्भाव मानते थे।
भोज ने परिवत्ति के लक्षण में वस्तुओं के विनिमय तथा व्यत्यय की धारणा प्रकट की है। इस प्रकार उनके अनुसार वस्तुओं का विनिमय अर्थात् एक वस्तु.देकर दूसरी वस्तु का ग्रहण, परिवृत्ति अलङ्कार का एक रूप और वस्तुओं का व्यत्यय अर्थात् एक स्थान से अन्यत्र अपसरण, उसका दूसरा रूप होगा। व्यत्यय तथा विनिमय को मिलाकर उभयरूपात्मक परिवृत्ति बनती है। इन तीनों के मुख्य और अमुख्य (गोणी वृत्ति ) भेद से छह भेद हो जाते हैं ।२ अर्थ के व्यत्यय में प्रसिद्ध स्थान से अन्यत्र अपसरण में-परवर्ती किसी भी आचार्य ने परिवृत्ति नहीं मानी है। वैसी उक्ति के स्वरूप पर पर्याय आदि में विचार किया गया है। अर्थव्यत्यय तक परिवृत्ति के क्षेत्र को खींच कर ले जाना उचित नहीं जान पड़ता।
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने एकमत से उद्भट की तरह सम, न्यून तथा विशिष्ट अर्थ से क्रमशः सम, विशिष्ट और न्यून अर्थ के विनिमय में परिवृत्ति अलङ्कार की सत्ता मानी है।
अप्पय्य दीक्षित ने न्यून और अधिक का परस्पर परिवर्तन परिवृत्ति का क्षेत्र माना है। उन्होंने उसके जो दो उदाहरण दिये हैं, उनमें न्यून देकर
१. युगपद्दामादाने अन्योन्यं वस्तुनोः क्रियेते यत् । क्वचिदुपचर्येते वा प्रसिद्धितः सेति परिवृत्तिः॥
-रुद्रट, काव्यालं. ७,७७ .२. व्यत्ययो वस्तुनो यस्तु यो वा विनिमयो मिथः ।। परिवृत्तिरिहोक्ता सा....."||-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, २६
मरिवृत्ति भेद के लिए द्रष्टव्य वही ३,३.