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५५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि एकावली की धारणा में कारणमाला की धारणा की तरह विकास की एक ही स्थिति आयी है । पहले केवल प्रत्येक उत्तरवर्ती अर्थ का अपने पूर्ववर्ती के प्रति विशेषण बनने की शृङ्खला की धारणा एकावली में थी, पर पीछे चल कर पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती; दोनों के एक दूसरे के प्रति विशेषण बनने की शृङ्खला के आधार पर उसके दो रूप स्वीकृत हुए। रुय्यक ने जिसे (पूर्व-पूर्व के उत्तर-उत्तर के प्रति विशेषणत्व को) मालादीपक का लक्षण माना था, वह अप्पय्य दीक्षित और जगन्नाथ के द्वारा एकावली का ही एक रूप स्वीकृत हुआ। कारणमाला से एकावली का भेद केवल इतना है कि कारणमाला में पूर्व-पूर्व तथा उत्तर-उत्तर में कार्यकारण की शृङ्खला दिखायी जाती है और इसमें उनके बीच विशेषण-विशेष्य की शृङ्खला रहती है।
एकावली-भेद
विधि तथा निषेध के आधार पर रुद्रट आदि ने एकावली के दो भेद माने थे। पूर्ववर्ती का परवर्ती के प्रति विशेष्यत्व तथा विशेषणत्व के आधार पर एकावली के दो भेद हो जाते हैं। ये दोनों विधि-निषेध भेद से चार प्रकार के हो जाते हैं। सार
सार अलङ्कार में अनेक पदार्थों में उत्तर-उत्तर में स्थित पदार्थ के अधिकाधिक उत्कर्ष की धारणा प्रकट की गयी है। एक वस्तु से उसके आगे आने वाली वस्तु में अधिक उत्कर्ष, उससे भी आगे आने वाली वस्तु में और अधिक उत्कर्ष; इस प्रकार प्रत्येक पूर्ववर्ती अर्थ से उत्तर-उत्तर में स्थित अर्थ के उत्कर्ष की शृङ्खला-सी इसमें बन जाती है ।
रुद्रट ने सर्वप्रथम सार को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ समुदाय में से एक देश को क्रम से अलग कर गुण-सम्पन्न होने से अन्त तक उसकी ( गुणोत्कर्ष की ) चरम सीमा निर्धारित की जाय, वहीं सार अलङ्कार होता है।' अभिप्राय यह कि इसमें अर्थों के समुदाय में से एक अङ्ग की अपेक्षा दूसरे में अधिक गुणोत्कर्ष, उससे भी तीसरे में अधिक गुणोत्कर्ष और इसी क्रम
१. यत्र यथासमुदायाद्यथैकदेशं क्रमेण गुणवदिति । निर्धार्यते परावधि निरतिशयं तद्भवेत्सारम् ।।-रुद्रट, काव्यालं. ७,६६