________________
३६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसके लिए स्वतन्त्र अलङ्कार-वर्ग की कल्पना आवश्यक नहीं।
संस्कृत तथा हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में दो अलङ्कारों के तत्त्व के मिश्रण से कुछ निश्चित स्वरूप वाले अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । उनकी स्थिति - संसृष्टि और सङ्कर से भिन्न है। उनमें दो स्वतन्त्र अलङ्कारों के तत्त्व का ग्रहण होने पर भी उनके निश्चित स्वरूप का निर्धारण कर उन्हें स्वतन्त्र अस्तित्व दिया गया है। दीपक और एकावली के तत्त्वों के मिश्रण से मालादीपक; उपमा और रूपक के तत्त्व से उपमारूपक आदि अलङ्कारों का तथा अपह्न ति और उत्प्रक्षा के मिश्रण से सापह्नवोत्प्रेक्षा आदि अनेक अलङ्कार-भेदों का अध्ययन मिश्रालङ्कार-वर्ग में होना चाहिए। मालादीपक आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व संस्कृत के समर्थ आलङ्कारिकों ने भी माना है। उपमा-रूपक की कल्पना सर्वमान्य नहीं हुई है; पर हमने पिछले अध्याय में इस तथ्य पर 'विचार किया है कि अनेक अलङ्कारों की कल्पना तत्तदलङ्कारों के तत्त्वों के मिश्रण से की गयी है। हमारी मान्यता है कि वैसे मिश्रित स्वभाव वाले अलङ्कारों का अध्ययन ही मिश्रालङ्कार-वर्ग में किया जाना चाहिए।
उभयालङ्कार से मिश्रालङ्कार का भेद स्पष्ट है। उभयालङ्कार एक साथ शब्द और अर्थ-दोनों पर आश्रित रह कर दोनों को अलङ कृत करते हैं, जैसा कि अग्निपुराणकार के कथन से स्पष्ट है। पर, मिश्रालङ्कार में दो अलङ्कारों के तत्त्व के मिश्रण से नया अलङ्कार-रूप बन जाता है। यह मिश्रण केवल शब्दालङ्कारों के तत्त्व का भी हो सकता है और केवल अर्थालङ्कारों के तत्त्व का भी । शब्द और अर्थ के अलङ्कारों के परस्पर मिश्रण से नवीन अलङ्कार बन सकता है। सङ्कर और संसृष्टि को इस वर्ग में नहीं रख कर अलग वर्ग में रखा जाना चाहिए । कारण यह है कि यदि उन्हें विश्वनाथ, “विद्यानाथ आदि के मतानुसार अनेक अलङ्कारों के मिश्रण से बने स्वतन्त्र अलङ्कार' मान भी लिया जाय, तो भी विभिन्न अलङ्कारों के तत्त्वों के मिश्रण से आविर्भूत मालादीपक आदि मिश्रालङ्कारों से उनका एक बड़ा भेद रह जायगा। वह यह कि जहाँ मालादीपक में दीपक और एकावली; इन दो
१. यद्यत एवालङ्काराः परस्परविमिश्रिताः। तदा पृथगलङ्कारौ संसृष्टिः सङ्करस्तथा।
-विश्वनाथ, साहित्य-दर्पण, १०, १२६ विद्यानाथ का प्रतापरुद्रयशोभूषण, पृ० ४७२ भी द्रष्टव्य