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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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रुय्यक ने क्रिया आदि के आदिगत, मध्यगत एवं अन्तगत भेदों को स्वीकार किया है।' जयदेव ने दण्डी के आवृत्तिदीपक, मालादीपक आदि भेदों को भी स्वीकार किया है; पर उन्होंने मालादीपक के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की है। उनके मतानुसार दीपक और एकावली अलङ्कारों के स्वरूप का मिश्रण मालादीपक है ।२ नरसिंह कवि ने 'नजराज यशोभूषण' में दीपक के दो मुख्य भेदों के तीन-तीन उपभेद-गुणतद्भावरूपधर्मान्वय, क्रियातद्भावान्वय एवं द्रव्यतद्भावान्वय–मान कर छह प्रकार के दीपक माने हैं।
हिन्दी-रीति-आचार्यों ने संस्कृत के आचार्यों की दीपक-भेद-विषयक मान्यता को ही प्रधानतः स्वीकार किया है। केशव ने मणिदीपक-नामक एक नवीन दीपक-भेद की कल्पना की, जिसमें वर्षा, शरद्, भूषण, भाव आदि का वर्णन अपेक्षित माना गया।४ देव ने परिवृत्ति, कारणमाला तथा समुच्चय को दीपक का भेद मान लिया है। यह नवीन भेद की कल्पना नहीं, अन्य अलङ्कारों के दीपक में अन्तर्भावन का आयास-मात्र है; जिसका औचित्य सन्दिग्ध है। आचार्य भिखारी ने देहरीदीपक नामक दीपक-भेद को भी स्वीकार किया है । अनन्वय ___ स्वरूप-विकास की दृष्टि से अनन्वय के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं दीख पड़ता। उपमा से उसकी स्वतन्त्र सत्ता माने जाने के प्रश्न पर आचार्यों के दो मत रहे हैं। उपमा के एक भेद के रूप में इस अलङ्कार की धारणा का जन्म हुआ था। पीछे चल कर अधिकांश आचार्यों ने अनन्वय के प्राचीन स्वरूप को ही स्वीकार कर उपमा से उसकी स्वतन्त्र सत्ता मान ली। अन्य उपमामूलक अलङ्कारों की तरह उपमा की मूल धारणा पर आधृत होने पर भी उसे उपमा का एक भेद-मात्र नहीं मान कर स्वतन्त्र अलङ्कार माना जाने लगा। परवर्ती
१. रुय्यक अलं० सर्वस्व, पृ० ७४ २. दीपकैकावलीयोगान्मालादीपकमिष्यते ।
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ८६ ३. द्रष्टव्य, नरसिंह, नजराजयशोभू० पृ० १९८ ४. द्रष्टव्य, केशव, कविप्रिया पृ० २६४-६५ ५. देव, शब्दरसायन पृ० १५८ ६. भिखारी, काव्यनि० पृ० ५२२